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________________ ६४४ सूत्रकृतांग सूत्र को पराजित करके रहने वाला ज्ञान केवलज्ञान है । भगवान् उससे युक्त थे, इसलिए उन्हें अभिभूय ज्ञानी कहा है । भगवान् के सविशुद्धकोटि और अविशुद्ध-कोटिरूप दोनों ही प्रकार के गन्ध - दोष हट गए थे, इसलिए निराम-गन्ध थे । अर्थात् उन्होंने मूल - उत्तर गुणों से शुद्ध चारित्रक्रिया का पालन किया था । तथा असह्य परीषहों और उपसर्गों की पीड़ा प्राप्त होने पर श्री भगवान् कम्परहित होकर चारित्र में ढ़ थे । तथा कर्मोपाधि हट जाने से वे कर्मरहित शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित थे । सारे संसार में भगवान् से बढ़कर हस्तामलकवत् जगत् के पदार्थों को जानने वाला और कोई विद्वान नहीं था । भगवान् सचित्तादिरूप बाह्य ग्रन्थ और कर्मरूप आभ्यन्तर ग्रन्थ से अतीत -- निर्ग्रन्थ थे । वे इहलोकभय आदि ७ प्रकार के भयों से रहित थे । भगवान् के ( वर्तमान आयु के सिवाय) चारों प्रकार की आयु नहीं थी, क्योंकि कर्मरूपी बीज के जल जाने पर फिर उनकी उत्पत्ति असम्भव है । इसीलिए भगवान् को यहाँ अनायु कहा गया है। उन्होंने सदा-सदा के लिए जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि आदि पर विजय प्राप्त कर ली थी । इन सब विशेषताओं से युक्त ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर थे । मूल पाठ से भूइपणे अणि अचारी ओहंतरे धीरे अनंतचक्ख । अणुत्तरे तप्पइ सूरिए वा, वइरोर्यांणदे व तमं पगासे ||६|| ू संस्कृत छाया सभूतिप्रज्ञोऽनिकेतचारी ( अनियताचारी ) ओघन्तरो धीरोऽनन्नचक्षुः । अनुत्तरं तपति सूर्य इव, वैरोचनेन्द्र इव तमः प्रकाशयति ॥६॥ अन्वयार्थ (से) वे भगवान् महावीर स्वामी ( भूइपण्णे) अनन्तज्ञानी अथवा सर्वमंगलरूप प्रज्ञासम्पन्न, (अणि अचारी ) गृहप्रतिबन्धरहित या अप्रतिबद्धरूप विचरण करने वाले या अपनी इच्छानुसार स्वतन्त्र विचरणशील (ओहंतरे ) संसार समुद्र को पार करने वाले (धीरे ) विशाल बुद्धि से सुशोभित, (अनंतचक्खू ) अनन्तदर्शी व अनन्तज्ञानी थे । (सुरिए वा ) जैसे सूर्य ( अणुत्तरे तप्पइ) सबसे अधिक तपता है, वैसे ही सबसे अत्रिक उत्कृष्ट तप करते थे, ( वइरोर्याणदे व तमं पगासे) प्रकाशमान अग्नि जैसे अन्धकार को दूर करके प्रकाश करती है, वैसे ही भगवान् अज्ञानान्धकार को दूर कर पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करते थे । भावार्थ भगवान् की प्रज्ञा विश्वमंगलकारिणी थी, उनका विहार सब प्रकार के गृह या सांसारिक प्रतिबन्धों से रहित था, वे संसार समुद्र को तैरने वाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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