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सूत्रकृतांग सूत्र
को पराजित करके रहने वाला ज्ञान केवलज्ञान है । भगवान् उससे युक्त थे, इसलिए उन्हें अभिभूय ज्ञानी कहा है । भगवान् के सविशुद्धकोटि और अविशुद्ध-कोटिरूप दोनों ही प्रकार के गन्ध - दोष हट गए थे, इसलिए निराम-गन्ध थे । अर्थात् उन्होंने मूल - उत्तर गुणों से शुद्ध चारित्रक्रिया का पालन किया था । तथा असह्य परीषहों और उपसर्गों की पीड़ा प्राप्त होने पर श्री भगवान् कम्परहित होकर चारित्र में ढ़ थे । तथा कर्मोपाधि हट जाने से वे कर्मरहित शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित थे । सारे संसार में भगवान् से बढ़कर हस्तामलकवत् जगत् के पदार्थों को जानने वाला और कोई विद्वान नहीं था । भगवान् सचित्तादिरूप बाह्य ग्रन्थ और कर्मरूप आभ्यन्तर ग्रन्थ से अतीत -- निर्ग्रन्थ थे । वे इहलोकभय आदि ७ प्रकार के भयों से रहित थे । भगवान् के ( वर्तमान आयु के सिवाय) चारों प्रकार की आयु नहीं थी, क्योंकि कर्मरूपी बीज के जल जाने पर फिर उनकी उत्पत्ति असम्भव है । इसीलिए भगवान् को यहाँ अनायु कहा गया है। उन्होंने सदा-सदा के लिए जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि आदि पर विजय प्राप्त कर ली थी । इन सब विशेषताओं से युक्त ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर थे ।
मूल पाठ
से भूइपणे अणि अचारी ओहंतरे धीरे अनंतचक्ख । अणुत्तरे तप्पइ सूरिए वा, वइरोर्यांणदे व तमं पगासे ||६||
ू
संस्कृत छाया
सभूतिप्रज्ञोऽनिकेतचारी ( अनियताचारी ) ओघन्तरो धीरोऽनन्नचक्षुः । अनुत्तरं तपति सूर्य इव, वैरोचनेन्द्र इव तमः प्रकाशयति
॥६॥
अन्वयार्थ
(से) वे भगवान् महावीर स्वामी ( भूइपण्णे) अनन्तज्ञानी अथवा सर्वमंगलरूप प्रज्ञासम्पन्न, (अणि अचारी ) गृहप्रतिबन्धरहित या अप्रतिबद्धरूप विचरण करने वाले या अपनी इच्छानुसार स्वतन्त्र विचरणशील (ओहंतरे ) संसार समुद्र को पार करने वाले (धीरे ) विशाल बुद्धि से सुशोभित, (अनंतचक्खू ) अनन्तदर्शी व अनन्तज्ञानी थे । (सुरिए वा ) जैसे सूर्य ( अणुत्तरे तप्पइ) सबसे अधिक तपता है, वैसे ही सबसे अत्रिक उत्कृष्ट तप करते थे, ( वइरोर्याणदे व तमं पगासे) प्रकाशमान अग्नि जैसे अन्धकार को दूर करके प्रकाश करती है, वैसे ही भगवान् अज्ञानान्धकार को दूर कर पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करते थे ।
भावार्थ
भगवान् की प्रज्ञा विश्वमंगलकारिणी थी, उनका विहार सब प्रकार के गृह या सांसारिक प्रतिबन्धों से रहित था, वे संसार समुद्र को तैरने वाले
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