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सूत्रकृतांग सूत्र त्यागमय जीवन जनता की आँखों के समक्ष स्पष्ट खुला था, उन भगवान् महावीर के (धम्म च) धर्म-स्वभाव को या श्रुतचारित्ररूप धर्म को (जाणाहि) तुम जानो तथा (धिइंच) धर्मपालन में उनकी दृढ़ता-धीरता को (पेहि) देखो।
भावार्थ आर्य जम्बूस्वामी के प्रश्न पर श्रीसुधर्मास्वामी ने उत्तर दियाभगवान महावीर स्वामी संसारी जीवों के वास्तविक दुःखों के स्वरूप को जानते थे, क्योंकि उन्होंने उस कर्मविपाकजनित दुःख के निवारण का यथार्थ उपदेश दिया था। अष्टविध कर्मरूपी कुश को उखाड़ने में निपुण थे। सदा सर्वत्र उनका उपयोग लगा रहता था तथा वे महान् ऋषि थे अर्थात् आत्मा के सच्चिदानन्द सत्यस्वरूप के द्रष्टा थे। अनन्तपदार्थों के वे ज्ञाता-द्रष्टा थे। वे अधिक और अक्षय यशस्वी थे । भवस्थ केवली अवस्था में जनता के नयनपथ में स्थित थे । उन भगवान की महत्ता को जानने के लिए उनके जनकल्याणकारी श्र त-चारित्ररूप धर्म या स्वभाव को जानो, तथा उनके संयम की अखण्ड दृढ़ता (धीरता) को देखो।
व्याख्या
यास
ऐसे भगवान् की महत्ता की जानने हेतु उनके धर्म व धैर्य को देखो
इस गाथा में पूर्वगाथा में जम्बूस्वामी द्वारा उपस्थित प्रश्नों का श्री सुधर्मास्वामी द्वारा उत्तरित, कुछ समाधान प्रस्तुत किये गए हैं। साथ ही यह बात बता दी गई कि अगर भगवान के वास्तविक स्वरूप को जानना चाहते हो, और यह पता लगाना चाहते हो कि वे कौन थे, क्या ये, किन विशेषताओं से युक्त थे? तो उनके द्वारा प्ररूपित जनकल्याणकारी श्रत-चारित्ररूप धर्म को या उनके स्वभाव को जानो तथा परीषहों-उपसर्गों को सहने में उनकी धीरता-संयम' में दृढ़ता देखो । भगवान् महावीर स्वामी की विशेषताओं को बताने के लिए यहाँ कुछ विशेषणों का प्रयोग किया गया है, वे ये हैं-'खेयन्नए, कुसले, आसुपन्ने, महेसी, जसंसिणो, चक्खुपहे ठियस्स ।' इनके विशिष्ट अर्थों पर विचार का लेना आवश्यक है। 'खेयन्नए' के दो रूप होते हैं-खेदज्ञः और क्षेत्रज्ञः । खेदज्ञ का एक अर्थ तो हम पहले कर चुके हैं। चौंतीस अतिशय के धारक भगवान् महावीर स्वामी संसारी प्राणियों के कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले खेद-दुःख को जानते थे, क्योंकि उनके दु:ख मिटाने का वे समर्थ उपदेश देते थे । अथवा भगवान् क्षेत्रज्ञ थे, यानी क्षेत्र का अर्थ होता है-आत्मा, उसके यथार्थ स्वरूप के ज्ञाता होने के कारण वे क्षेत्रज्ञ थे । अथवा क्षेत्र का अर्थ आकाश भी होता है, अर्थात् वे लोकरूप और अलोकरूप दोनों आकाशों के स्वरूप को भली भाँति जानते थे । भगवान् कुशल थे, यानी आठ प्रकार के कर्मरूपी
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