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________________ वीरस्तुति : छठा अध्ययन ६४१ भावकुशों को छेदन करने में कुशल । भगवान् प्राणियों के कर्मरूपी भावकुशों को काटने में भी निपुण होने से कुशल थे । शीघ्रबुद्धि सम्पन्न व्यक्ति आशुप्रज्ञ कहलाता है । भगवान् आशुप्रज्ञ थे, क्योंकि उनका उपयोग सदा-सर्वदा सर्वत्र लगा रहता था, वे छद्मस्थ की तरह सोचकर या उपयोग लगाकर नहीं जानते । भगवान् महर्षि थे, अर्थात् अत्यन्त उग्र तपश्चर्या करने से तथा अतुल परीषहों और उपसर्गों को सहन करने के कारण महर्षि थे । अथवा सच्चिदानन्दमय सत्यस्वरूप के या जीवन के अभ्युदय के मंत्रों के द्रष्टा होने के कारण भी वे महर्षि थे । वे अनन्तज्ञानी इसलिए थे कि उनका विशेष ग्राहक ज्ञान अन्त (क्षय) रहित था । अथवा उनका ज्ञान अनन्तपदार्थों का निश्चय करने वाला होने से वे अनन्तज्ञानी थे । सामान्य अर्थ का निश्चय करने के कारण वे अनन्तदर्शी थे । भगवान् का यश मनुष्य, देवता एवं असुरों से बढ़कर था, इसलिए ने यशस्वी थे । तथा भवस्थ केवली अवस्था में वे जगत् के नयनपथ में स्थित थे । अथवा जगत् के सामने सूक्ष्म और व्यवहित पदार्थों को प्रकट करने के कारण वे जगत् नेत्रस्वरूप थे । अथवा वे आँखों के समान हिताहित पथ को दिखाने में स्थित — संलग्न रहते थे । ऐसे भगवान् के धर्म को अर्थात् संसार का उद्धार करने के स्वभाव को अथवा उनके द्वारा प्ररूपित श्रुत चारित्ररूप धर्म को जानो - समझो। उपसर्गों एवं परीषहों के द्वारा पीड़ित किये जाने पर भी निष्कंप चारित्र से अविचल स्वभावरूप उनकी धृति - दृढ़ता को या संयम में प्रीति को देखो, अपनी पैनी बुद्धि से उस पर विचार करो । अथवा 'जाणाहि धम्मं च धिइ च पेहि' का यह अर्थ भी होता है कि उन्हीं श्रमण इत्यादि सज्जनों ने श्रीसुधर्मास्वामी से पूछा कि 'यशस्वी और जगत् की आँखों में बसे हुए भगवान महावीर स्वामी के धर्म और धैर्य को आप जानते हैं, अतः हमसे इन सब के बारे में कहें ।' मूल पाठ उड़ं अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा । से णिच्च णिच्चेहि समिक्खख पन्ने, दीवे व धम्मं समियं उदाहु ||४|| संस्कृत छाया ऊर्ध्वमधस्तिर्यग्दिशासु, त्रसाश्च ये स्थावरा ये च प्राणाः 1 स नित्यानित्याभ्यां समीक्ष्य प्रज्ञो, दीप इव धर्मं समितमुदाह || ४ || अन्वयार्थ ( उड्ढ) ऊपर, (अहेयं) नीची और ( तिरियं दिसासु) तिरछी दिशाओं में रहने वाले (तसा य जे थावरा जे य पाणा) जो त्रस और स्थावर प्राणी रहते हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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