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________________ वीरस्तुति : छठा अध्ययन ६३७ अर्थात् — इस जगत् में एकमात्र जिनसिंह ही अपनी विकट चाल से भ्रमण कर सकते हैं, जिन्होंने अपनी लीला से कामरूप तीक्ष्णदाढ़ वाले मदन ( काम को ) चीर डाला है | इस अध्ययन में अनुकूल-प्रतिकूल परीपहों और उपसर्गों से अपराजित तथा त्याग, तपस्या, चारित्र, ज्ञान, दर्शन में अद्भुत पराक्रम के कारण भगवान् महावीर स्वामी की ही आध्यात्मिक वीरता के कारण यहाँ भाववीर से विवक्षित हैं । स्तुति के भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार निक्षेप होते हैं । नाम, स्थापना सुगम है । ज्ञशरीर एवं भव्यशरीर से व्यतिरिक्त द्रव्यस्तुति वह है जो कटक, केयूर, पुष्पमाला, चन्दन आदि सचित्त अचित्त द्रव्यों द्वारा की जाती है । भावस्तुति वह है--- जो विद्यमान गुणों का ( यानी जिसमें जो गुण मौजूद हैं, उनका ) कीर्तन, गुणानुवाद किया जाता है । यहाँ वीरस्तुति में वीरप्रभु की भावस्तुति ही विवक्षित है । अतः निक्षेप आदि के बाद अव वीरस्तुति की गाथाएँ क्रमश: प्रारम्भ करते हैं- मूल पाठ पुच्छिस्सु णं समणा महणा य, अगारिणो या परतित्थिया य । से केइ गंत हियं धम्ममाहु, अणेलिसं साहु- समिक्खयाए ॥१॥ संस्कृत छाया अप्राक्षुः श्रमणाः ब्राह्मणाश्च, अगारिणो ये परतीथिकाश्च । सक एकान्तहितं धर्ममाह, अनीदृशं साधुसमीक्षया 11211 अन्वयार्थ ( समणा य माहणा ) श्रमण और ब्राह्मण, ( अगारिणो ) क्षत्रिय आदि सद्गृहस्थ, ( परतित्थिया य) अन्यतीर्थिक शाक्य आदि ने पूछा कि ( स केइ ) वह कौन है ? जिसने (गंत हियं) एकान्त हितरूप ( अणेलिस) अनुपम ( धम्मं ) धर्म ( साहु afar) अच्छी तरह विचार कर (आहु) कहा है । भावार्थ आर्य जम्बूस्वामी ने गुरुदेव सुधर्मास्वामी गणधर से पूछा - "भगवन् ! मुझसे प्रायः श्रमण-साधु, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सद्गृहस्थ एवं बौद्ध आदि अन्य मतों के मानने वाले सज्जन प्रश्न किया करते हैं कि जिन्होंने अपने निर्मल ज्ञान के द्वारा स्वतंत्र रूप से अच्छी तरह निश्चय कर विश्व का एकान्तरूप से कल्याण करने वाले अनुपम धर्म (अहिंसा आदि ) का कथन किया है, वे महापुरुष कौन हैं ? कैसे हैं ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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