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________________ वीरस्तुति : छठा अध्ययन ६३५ महावीर की महत्ता एवं आदर्श का एक बहुत ही सुन्दर एवं उज्ज्वल चित्र इसमें प्रस्तुत किया गया है, उन्हीं के ही एक महान् ज्ञानी एवं संयमी शिष्य श्री गणधर सुधर्मास्वामी के द्वारा । भगवान् महावीर स्वामी का अनुपम धर्म, ज्ञान, दर्शन, शील, कैसा था ? उन्होंने किस प्रकार संसार के प्राणियों के दुखों और उनके कारणों को जानकर अष्टविध कर्मों का क्षय करने के लिए पुरुषार्थ किया था ? उन्होंने संसार के समस्त प्राणियों के स्वभाव, गति, आगति, जाति, शरीर, कर्म आदि के वास्तविक स्वरूप को कैसे जाना था ? वे कैसे अनन्तज्ञानदर्शन से सम्पन्न बने ? जीवविज्ञान को उन्होंने कैसे हस्तामलकवत् कर लिया था ? अहिंसा धर्म की सिद्धि उन्होंने अनेकान्तवाद द्वारा कैसे की थी ? उनकी अहिंसा कैसी थी ? अपरिग्रह कैसा था ? उनकी विहारचर्या, उनका आचरण, उनकी दिव्यदृष्टि आदि कैसी थी ? कषायों और विषयों से वे किस प्रकार निर्लिप्त थे ? निर्वाणवदियों में, साधुओं में, मुनियों में तपस्वियों में, सुज्ञानियों में, शुक्लध्यानियों में, धर्मोपदेशकों में, अध्यात्मविद्या के पारगामियों में, चारित्रवानों में, प्रभावशालियों आदि में भगवान् महावीर किस प्रकार से श्रेष्ठ और अग्रणी थे ? श्रेष्ठता के लिए सुमेरु, सुदर्शन, स्वयंभूरमण सागर, देवेन्द्र, चन्द्र, सूर्य, शंख आदि संसार की सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली वस्तुओं से उपमा दी गई है । साथ ही लोकोत्तम श्रमणश्रेष्ठ भगवान् महावीर की निश्चलता, क्षमा, दया, शील, श्रुत, तप, ज्ञान, कषायविजय, पापमुक्तता, वाद-विजयित्व, त्याग, ममत्व और वासना पर विजय आदि उत्तमोत्तम गुणों का निरूपण किया गया है । कई लोग पूछते हैं— भगवान् की स्तुति करने से या नाम-स्मरण से क्या लाभ है ? पापक्षय कैसे हो जाता है ? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि जिस समय किसी व्यक्ति का नाम लिया जाता है, उस समय फौरन उसकी आकृति, प्रकृति, गुण, और विशेषता आदि का भी स्मरण हो आता है । जिससे महापुरुषों की स्तुति करते ही व्यक्ति के सामने उनकी विशेषता, उनके विशिष्ट गुणों का प्रकाश साकार-सा हो जाता है और व्यक्ति के अन्धकारमय जीवन में प्रकाश की उज्ज्वल किरणें फैलती हैं । महापुरुषों की स्तुति चित्त की चिर मलिनता को धोकर साफ कर देती है । जैसे कसाई का नाम लेते ही व्यक्ति के मानसचक्षुओं में एक ऐसे निम्नस्तरीय पापी व्यक्ति का चित्र अंकित हो जाता है, जिसके लाल-लाल नेत्र हैं, हाथ में छुरा है, कालाकलूटा शरीर है, भयंकर निर्दय स्वभाव है । वेश्या का नाम लेते ही स्मृतिपटल पर एक भोगी, विलासी कामिनी, नारी की प्रतिमूर्ति अंकित हो जाती है । किसी पवित्र आत्मा, विशिष्ट त्यागी, सद्गुणी सन्त या सद्गृहस्थ का नाम लेते ही मानस किन्हीं अलौकिक भावों में बहने लगता है । इसी प्रकार भगवान् के यथार्थ गुणनिष्पन्न नाम के लेते ही या उनकी स्तुति या गुणानुवाद करते ही सहसा हृदय में उनके दिव्य रूप और लोकोत्तर गुणों की छवि अंकित हो जाती है, उनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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