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________________ छठा अध्ययन : वीरस्तुति पाँचवें नरकविभक्ति अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी है। अब छठा 'वीरस्तुति' अध्ययन प्रारम्भ कर रहे हैं । पूर्वोक्त पाँच अध्ययनों के साथ इस अध्ययन का सम्बन्ध यह है कि पहले से लेकर पाँचवें अध्ययन तक विभिन्न पहलुओं से कर्मबन्धन के कारणों तथा कर्मबन्ध से होने वाले तीव्र दु:खदायक फलों का निरूपण किया गया है। कहीं मिथ्यात्व से होने वाले कर्मबन्धों का प्रतिपादन किया गया है, तो कहीं प्रमाद-उपसर्गों के सहन करने में असावधानी से होने वाले कर्मबन्धन का विवेचन है, कहीं अविरति-हिंसा, असत्य, परिग्रह, अब्रह्मचर्य (स्त्रीसंसर्ग) आदि से होने वाले कर्मबन्धनों और उनके परिणामों खासा अच्छा चित्रण किया गया है, तो कहीं घोर पापकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले नरक और तज्जनित दुःखों का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है। अब इस छठे अध्ययन में इन सब कर्मबन्धनों, उनके करणों-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, स्त्रीसंसर्ग आदि से दूर रहने वाले तथा उपसर्गों और परीषहों के समय चट्टान-से दृढ़ रहने वाले स्थिरप्रज्ञ, नरक बन्ध के ही नहीं, चारों गतियों के बन्ध के कारणों से स्वयं दूर रहने वाले तथा जगत् के सभी भव्य जीवों को उस सम्बन्ध में प्रतिबोध देकर दूर रहने के लिए सावधान करने वाले श्रमणशिरोमणि भगवान् महावीर के आदर्श जीवन की झाँकी वीरस्तुति के माध्यम से श्री सुधर्मास्वामी दे रहे हैं । इस अध्ययन को प्ररूपित करने का प्रयोजन यह है कि जो साधक कर्मबन्धन के कारणों को समझकर उनसे दूर रहना और कर्मफलों से बचना चाहता है, अपनी आत्मा को शुद्ध संयम या ज्ञानदर्शन-चारित्ररूप मोक्ष के पथ पर ले जाना चाहता है, उसके सामने एक आदर्श होना चाहिए, ताकि वह उसके सहारे अपने जीवन के चित्र को संयम के विविध रंगों से भर सके । पूर्णता के आदर्श के बिना अपूर्ण साधक का आगे बढ़ना कठिन होता है । अतः उस आदर्श जीवन की झाँकी वीरस्तुति के नाम से प्रस्तुत की जा रही है। अध्ययन का संक्षिप्त परिचय-इस अध्ययन का नाम 'वीरस्तुति' है । इसका सिर्फ एक उद्देशक ही है । इस अध्ययन में भगवान महावीर स्वामी के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, धर्मपुरुषार्थ आदि सद्गुणों के सम्बन्ध में श्री जम्बूस्वामी द्वारा उठाए एक प्रश्न का श्री सुधर्मास्वामी द्वारा प्रतिपादित संगोपांग उत्तर है। भगवान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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