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________________ नरकाधिकार : पंचम अध्ययन - द्वितीय उद्देशक व्याख्या चातुर्गतिकरूप अनन्त संसार का स्वरूप समझो इस गाथा में अध्ययन की परिसमाप्ति पर नरकगति ही नहीं, शेष तीनों गतियों सहित चारों गतियों और उनके अनुरूप होने वाले कर्मफल के यथार्थ वस्तुतत्त्व को समझने और मृत्युपर्यन्त इनके चक्कर में न आकर मोक्षप्राप्ति के अनुरूप संयम पालन का उपदेश दिया है । ६३३ नरकविभक्ति अध्ययन के सन्दर्भ में नरकगति के अतिरिक्त शेष तीन गतियों में गमन के कारणों और तदनुरूप होने वाले कर्मफलों के यथार्थ स्वरूप को समझने की बात इसलिए कही गई है कि मनुष्य यह समझता है कि ऐसे घोर दुःख तो नरकगति में ही मिलते हैं, अन्यत्र नहीं; परन्तु उसकी यह भ्रान्ति है । अशुभकर्म उदय में आता है तो नरक के अतिरिक्त तिर्यंचगति, मनुष्यगति एवं देवगति में नरक के जैसे दुःख उतनी तीव्र मात्रा में नहीं तो अल्पतीव्र मात्रा भी भोगने पड़ते हैं । तिर्यञ्चगति में परवश होकर कितना दुःख उठाना पड़ता है, यह सर्वविदित है । मनुष्यगति में भी इष्टवियोग, रोग, शोक, पीड़ा, मानसिक वेदना, अपमान, निर्धनता, क्लेश, राजदण्ड आदि भयंकर दुःखों का साम्राज्य देखा जाता है । और देवगति में भी ईर्ष्या, कलह, ममत्वजनित दु:ख, वियोग, नीच जाति के देवों में उत्पत्ति आदि अनेकों दुःख हैं । इसीलिए शास्त्रकार का आशय यह है कि नरकगति में जैसे नारकीय एवं दुःखमय वातावरण हो सकता है वैसे ही मनुष्यगति, तियंचगति एवं देवगति में भी नारकीय एवं दुःखमय वातावरण हो सकता है, इसलिए उस भावनरक से बचो, उसके कारणों को समझो और चातुर्गतिक रूप संसार और तदनुरूप मिलने वाले कर्मफल को भी जान लो । संसार का स्वरूप, उसके कारण और तदनुरूप फल के यथार्थ तत्त्व को समझकर जो ध्रुव -- मोक्ष है, जहाँ जाने के बाद गमनागमन, जन्ममरण आदि नहीं होता, उसी दिशा में मृत्युपर्यन्त प्रयत्नशील रहे, धर्म या संयम का मोक्षदृष्टि से आचरण करे । संसारदृष्टि को छोड़े । चार गतियों में से नरकगति के चार कारणों का उल्लेख पहले किया जा चुका है । देवगति के सरागसंयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा और बालतप ये ४ कारण हैं ; मनुष्यगति के प्रकृतिभद्रता, प्रकृतिविनीतता, जीवदया और किसी से ईर्ष्या न रखना ये ४ कारण हैं; तथा तिर्यंचगति के माया, गूढ़माया, असत्यभाषण और झूठा तोल - माप करना ये ४ कारण शास्त्रों में बताए हैं । इन्हें जानकर साधक संयममार्ग में आने वाले परीषहों और उपसर्गों को भी समभाव से सहने की प्रेरणा ले यह भी इस अध्ययन में नरकदर्शन ( विभक्ति) के निरूपण के पीछे रहस्य प्रतीत होता है । इस प्रकार पंचम अध्ययन का द्वितीय उद्देशक अमरसुखबोधिनी व्याख्या सहित सम्पूर्ण हुआ । || नरकविभक्ति नामक पंचम अध्ययन समाप्त ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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