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सूत्रकृतांग सूत्र
यहाँ 'अपरिग्गहे उ' में 'उ' (तु) शब्द से परिग्रह के अतिरिक्त मृषावाद, अदत्तादान और मैथुन के त्याग को भी समझ लेना चाहिए। मतलब यह है कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग ये पाँच जो कर्मबन्ध के मुख्य कारण हैं, उनको छोड़ना नरकादि के बन्ध से बचने के लिए अनिवार्य है। अगर इनका त्याग या पापकर्मों का त्याग नहीं किया जाए और भगवान्, तीर्थंकर, मसीहा, पैगंबर, खुदो, गॉड या ईश्वर किसी से केवल नरकादि से बचाने की प्रार्थना की जाएगी तो वह निष्फल होगी, कोई भी शक्ति घोरपापी को नरक से बचा नहीं सकती। इस गाथा के पीछे यह रहस्य भी निहित है।
मूल पाठ एवं तिरिक्खे मणुयाम (सु) रेसु, चतुरंतऽणंत तयणुविवागं । स सव्व मेयं इति वेदइत्ता, कखेज्ज कालं धुयमायरेज्ज ॥२५॥
॥त्ति बेमि॥ संस्कृत छाया एवं तिर्यक्षु मनुजाम (सु) रेषु चतुरन्तमनन्तं तदनुविपाकम् । स सर्वमेतदिति विदित्वा काङक्षेत कालं ध्र वमाचरेत ॥२५ ।
॥इति ब्रवीमि ॥ __ अन्वयार्थ (एवं) इसी तरह (तिरिक्ख मणुयामरे सु) तिर्यञ्चों में, मनुष्यों और देवों में भी उपलक्षण से नरक में जो (चउरंतऽणतं) चारगतिरूप तथा अनन्त संसार है, तथा (तयणुविवाग) उन चारों गतियों या उनमें कृतकों के अनुरूप जो विपाक (फल) है, (इति एवं सव्वं स वेदइत्ता) जैसा जिसका यथार्थ वस्तु स्वरूप है, इन सब बातों को वह बुद्धिमान पुरुष जानकर (कालं कंखेज्ज) अपने मरणकाल की प्रतीक्षा एवं समीक्षा करे, साथ ही (धुयमायरेज्ज) ध्र व-मोक्षमार्ग-संयम या धर्मपथ का भली भाँति आचरण करे।
भावार्थ जैसे पापकर्मी पुरुष की पूर्वगाथाओं में नरकगति बताई है, इसी प्रकार तिर्यञ्च, मनुष्य या देवगति में जो चातुर्गतिक रूप तथा अनन्त संसार है, (जिसका अंत बहुत ही कठिनता से होता है) तथा उन चारों गतियों या उनमें कृतकर्मों के अनुरूप जो विपाक (फल) प्राप्त होता है, इन सब बातों का पूर्वोक्त रीति से यथार्थ वस्तुस्वरूप वह बुद्धिमान् पुरुष जानकर मरणकाल की प्रतीक्षा और समीक्षा करता हुआ ध्र वमोक्ष या मोक्ष के कारणभूत संयम का यथार्थ रूप से पालन करे।
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