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नरकाधिकार : पंचम अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
संस्कृत छाया एतान् श्रु त्वा नरकान् धीरो, न हिंस्यात् कंचन सर्वलोके । एकान्त दृष्टिरपरिग्रहस्तु बुध्येत लोकस्य वशं न गच्छेत् ॥२४॥
___ अन्वयार्थ (धीरे) बुद्धिशील धीरपुरुष (एयाणि णरगाणि) इन नरकों के वर्णन को (सोच्चा) सुनकर (सव्वलोए) समग्र लोक में (किंचण) किसी प्राणी की (न हिसए) हिंसा न करे। (एगत दिट्ठी) किन्तु एकमात्र जीवादि तत्त्वों या आत्मतत्त्व या सिद्धान्त पर दृष्टि (विश्वास) रखता हुआ (अपरिग्गहे उ) परिग्रहरहित होकर (लोयस्स बुज्झिज्ज) अशुभकर्म करने और उनका फल भोगने वाले लोक-जीवलोक को समझे, अथवा कषायों का स्वरूप जाने तथा (वसं न गच्छे) कदापि उनके वश में (अधीन) न हो, यानी उनके प्रवाह में न बहे।
भावार्थ धीरपुरुष इन नरकों का वर्णन सुनकर समस्त लोक में किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। साथ ही जीवादि तत्त्वों या एकमात्र आत्मतत्त्व पर सम्यक श्रद्धा (दृष्टि) रखता हआ परिग्रहवत्ति से रहित होकर अशुभकर्म और उनके फलस्वरूप मिलने वाले लोक या जीवलोक अथवा कषायलोक का स्वरूप समझे और कदापि उनके अधीन न हो।
व्याख्या
'नरकविभक्ति' से साधक शिक्षा या प्रेरणा ले इस गाथा में इस सारे अध्ययन को जान-सुनकर साधक को जो शिक्षा या प्रेरणा लेनी चाहिए, वह संक्षेप में बताई है----'एयाणि सोच्चा णरगाणि धीरे ।' आशय यह है कि बुद्धि से सुशोभित विद्वान् एवं हिताहित विवेकी धीरपुरुष, जिनका वर्णन इस अध्ययन के दोनों उद्देशकों में किया गया है, उन नरकों यानी नरक में प्राप्त होने वाले दुःखों को सुनकर निम्नोक्त शिक्षा या प्रेरणा ले --(१) समग्र लोक में किसी की हिंसा न करे, (२) परिग्रहरहित हो, (३) एकमात्र आत्मतत्त्व या तत्सम्बद्ध जीवादि तत्त्वों में अविचल दृष्टि या श्रद्धा रखे, (४) अशुभकर्म करने और उसका फल भोगने वाले जीवलोक या कषायलोक को स्वरूपतः जाने, (५) किन्तु उनके प्रवाह में न बह जाय, उनके अधीन न रहे।
निष्कर्ष यह है कि साधक नरक में नारकों को मिलने वाले भयंकर दुःखों और उन दुःखों के कारणों को जानकर वैसे कुकृत्य न करे जिनसे नरक का बन्ध हो, तथा अगर कोई कुकृत्य पहले अज्ञान या मोहवश हो गया हो तो उसके सम्बन्ध में आलोचना, प्रायश्चित्त, तप, जप आदि के द्वारा उस दुष्कर्म की शुद्धि कर ले।
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