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सूत्रकृतांग सूत्र
अन्वयार्थ (अ) जो, (जारिस) जैसा (पुव्वं) पूर्व में पूर्वजन्म में (कम्म) कर्म (अकासि) जीव ने किया है, (तमेव) वही (संपराए) संसार-दूसरे भव में (आगच्छति) आता है । (एगंतदुक्खं भवं अज्जणित्ता) जिसमें (नरक में) एकान्त दुःख होता है, ऐसे भव (जन्म) को प्राप्त करके (दुक्खी) एकान्तदुःखी जीव (तं अणंतदुक्खं वेदंति) अनन्त दुःखरूप उस नरकरूप फल को भोगते हैं।
भावार्थ जिस जीव ने पूर्वजन्म या पूर्वकाल में जैसे कर्म किये हैं, उसे दूसरे भव (संसार) में वही प्राप्त होता है। जिन्होंने एकान्तदुःखरूप नरकभव का कर्म किया है, अनन्तर दुःखरूप उस नरक रूप फल को भोगते हैं।
व्याख्या जैसे जिसके कर्म, वैसा ही फलभोग !
इस गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि नारकों को जो नरक मिला है, वह किसी ईश्वर या किसी शक्ति द्वारा नहीं मिला है, अपितु जैसे जिस जीव ने कर्म किये थे, तदनुसार उसे अपना नया संसार मिलता है । इस दृष्टि से उन्हें पूर्वजन्म में उपा. जित एकान्त दुःखजनक पापकर्मों के अनुसार एकान्त दुःखरूप नरक मिला है । 'जैसी करणी, वैसी भरणी' की कहावत ही इस सम्बन्ध में चरितार्थ होती है। कर्म सिद्धान्त इतना प्रबल एवं अकाट्य सिद्धान्त है कि इसमें किसी भी पक्षपात, किसी भी ईश्वर या परम शक्ति के हस्तक्षेप अथवा किसी भी अन्य व्यक्ति को कहने की गुंजाइश ही नहीं रहती। यही बात शास्त्रकार कहते हैं- 'जं जारिसं..."तमणंत दुक्खं ।' आशय यह है कि प्राणी पूर्वजन्म में जैसी स्थिति और जैसे अनुभाव (रस) वाले जो कर्म करता है, वैसा ही अर्थात् जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट स्थिति वाला तथा जघन्यमध्यम-उत्कृष्ट अनुभव वाला उसी तरह का फल संसार (अगले जन्म) में उसे प्राप्त होता है। अर्थात् तीव्र, मन्द और मध्यम जैसे अध्यवसायों (परिणामों से जो कर्म बाँधा गया है, वह तीव्र, मन्द और मध्यम विपाक (फल) उत्पन्न करता हुआ उदय में आता है । जिस प्राणी ने सुख के लेश से भी रहित एकान्तरूप से दुःखोत्पादक नरकभव के कारणरूप कर्मों का उपार्जन किया है, वह एकान्त दुःखी होकर पूर्वोक्त असातावेदनीय रूप अनन्त (जिसका चिरकाल तक अन्त न हो) अशान्तियोग्य एवं अप्रतीकार्य दुःखों को भोगता है, यानी वैसे दुःखों का दीर्घकाल तक अनुभव करता है।
मूल पाठ एयाणि सोच्चा णरगाणि धीरे, न हिसए किंचण सव्वलोए । एगंतदिट्ठी अपरिग्गहे उ, बुज्झिज्ज लोयस्स वसं न गच्छे ।।२४।।
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