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________________ नरकाधिकार : पंचम अध्ययन - द्वितीय उद्देशक होता । इस गाथा में तीन बातों की ओर शास्त्रकार का संकेत है(२) पूर्वोक्त समस्त कठोर दुःख नारकी जीवों को सतत भोगने पड़ते हैं । (२) नारकी की आयु बहुत लम्बी होती है, उसका रक्षक कोई नहीं बनता । (३) उन दुःखों को वह अकेला ही भोगता है, उसका सहभागी कोई नहीं ६२६ नारकों को प्राप्त होने वाले दुःख चाहे परमाधार्मिकों द्वारा प्राप्त होते हों, अथवा परस्पर नारकों द्वारा हों या प्रकृतिकृत शीतोष्णादि दुःख हों, सभी दुःख अति हैं । ऐसे अतिदुःसह रूप-रस- गन्ध-स्पर्श-शब्द पाकर अज्ञानी नारक बार-बार पीड़ित होते रहते हैं । कोई भी क्षण ऐसा खाली नहीं जाता, जब उन्हें दुःख से छुट्टी मिलती हो । सदैव सतत दुःख, दुःख और दुःख ही मिलता रहता है । फिर नारकों की आयु (स्थिति) बहुत लंबी होती है । सातों नरकों की उत्कृष्ट स्थिति क्रमश १, ३, ७, १०, १७, २२ और ३३ सागरोपम काल की है । संसारी जीवों में नारकी के सिवाय अन्य किसी प्राणी की इतनी उत्कृष्ट स्थिति नहीं होती । दुःख भी उत्कट और उस पर अत्यन्त लम्बी आयु होती है । इसलिए चिरकाल तक नरक में पड़े रहकर कठोर कारावास से भी बढ़कर दण्ड प्राप्त होता है, उसे भोगना पड़ता है । प्रश्न होता है, क्या उस नारक के इतने उत्कट दुःख को सहने में कोई हिस्सेदार ( Partner ) नहीं होता, ताकि दु:ख का बँटवारा होने से उसे कम दुःख सहना पड़े ? शास्त्रकार कहते हैं - 'एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं' अर्थात् जीव सदा स्वयं अकेला ही दुःख का अनुभव करता है, उसके साथ दूसरा कोई साझीदार नहीं होता । वह बेचारा अफसोस करता है मया परिजनस्यार्थे कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दाहं गतास्ते फल भोगिनः ॥ अर्थात् - हाय ! मैंने अपने परिवार के लिए अत्यन्त भयंकर दुष्कर्म किये । परन्तु फल भोगने के समय मैं अकेला यहाँ जल सड़ रहा हूँ, फल भोगते समय वे सब मुझे छोड़कर चले गए । मूल पाठ 1 जं जारि पुव्वमकासि कम्मं तमेव आगच्छति संपराए । एतदुक्ख भवमज्जणित्ता, वेदंति दुक्खी तमणंत दुक्ख ||२३|| संस्कृत छाया यद् यादृशं पूर्वमकार्षीत् कर्म, तदेवागच्छतिसम्पराये एकान्तदुःखं भवमर्जयित्वा वेदयन्ति दुःखिनस्तमनन्तदुःखम् ||२३|| 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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