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व्याख्या
सदाजला नदी : नारकों को कष्टदायिनी
किया गया है ।
'सदाज्वला ' भी लोहे को अत्यन्त मवाद तथा क्षार
इस गाथा में नरक की एक सदाजला नदी का चित्रण सदाजला 'यथानाम तथागुण' वाली है । इसका दूसरा रूप होता है, जिसका अर्थ होता है— सदाज्वलनशील । उसका जल गर्म करके पिघलाए हुए गर्म रस का-सा अत्यन्त गर्म एवं रक्त, से मैला रहता है । रक्त से भरी होने वाली यह नदी बड़ी फिसलनी ( चिकनी ) है । अथवा विस्तृत और गहरे जल वाली है । अथवा वह प्रदीप्तजला यानी सदा अत्युष्ण जल वाली है । ऐसी सदाजला नदी पर नरक के भयंकर ताप से बचने हेतु नारक पहुँच जाते हैं, लेकिन वहाँ ठंडक तो मिलती नहीं । न कोई उनकी रक्षा करने वाला होता है, बेचारे अकेले अकेले ही तैरते हैं ।
मूल पाठ
एयाई फासाई फुसति बालं, निरंतरं तत्थ चिरट्ठितीयं ।
ण हम्ममाणस्स उ होइ ताणं, एगो सयं पच्चणुहोई दुक्खं ॥ २२ ॥
संस्कृत छाया एते स्पर्शाः स्पृशन्ति बालं, निरन्तरं तत्र चिरस्थितिकं
1
न हन्यमानस्य तु भवति त्राणं एकः स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखम् ||२२||
अन्वयार्थ
सूत्रकृतांग सूत्र
( तत्थ ) वहाँ नरक में (चिरट्ठितीयं) चिरकाल तक निवास करने वाले (बाल) अज्ञानी नारक को (एयाई फासाई) ये पूर्वोक्त स्पर्श यानी दुःख ( निरंतरं ) सदा सतत (फुसंति) पीड़ित करते रहते हैं । ( हम्ममाणस्स उ ) पूर्वोक्त दुःखों से आहत होते हुए नारकी जीव का (ताणं ण होइ ) वहाँ कोई त्राण - रक्षक नहीं होता । सच है, ( एगो सयं दुवखं पञ्चणहोइ) वह अकेला उक्त दुःखों को भोगता है । भावार्थ
पहले के दो उद्दे शकों में जिन कठोर दुःखों का वर्णन किया है, उन सब दुःखों का स्पर्श अज्ञानी नारकी जीव को निरन्तर होता रहता है । उन नारकी जीवों की आयु भी लम्बी होती है, और उस दुःख से उनकी रक्षा भी नहीं हो सकती । वह अकेला ही उन दुःखों को भोगता है । उसकी सहायता या रक्षा दूसरा कोई नहीं कर सकता ।
व्याख्या
अकेले ही दीर्घकाल तक दुःखरूप फलभोग
फासाइं
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इस गाथा में उद्दे शक का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार कहते हैं -- 'एयाई 'पच्चणु होइ दुक्खं ।'
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