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________________ ६२८ व्याख्या सदाजला नदी : नारकों को कष्टदायिनी किया गया है । 'सदाज्वला ' भी लोहे को अत्यन्त मवाद तथा क्षार इस गाथा में नरक की एक सदाजला नदी का चित्रण सदाजला 'यथानाम तथागुण' वाली है । इसका दूसरा रूप होता है, जिसका अर्थ होता है— सदाज्वलनशील । उसका जल गर्म करके पिघलाए हुए गर्म रस का-सा अत्यन्त गर्म एवं रक्त, से मैला रहता है । रक्त से भरी होने वाली यह नदी बड़ी फिसलनी ( चिकनी ) है । अथवा विस्तृत और गहरे जल वाली है । अथवा वह प्रदीप्तजला यानी सदा अत्युष्ण जल वाली है । ऐसी सदाजला नदी पर नरक के भयंकर ताप से बचने हेतु नारक पहुँच जाते हैं, लेकिन वहाँ ठंडक तो मिलती नहीं । न कोई उनकी रक्षा करने वाला होता है, बेचारे अकेले अकेले ही तैरते हैं । मूल पाठ एयाई फासाई फुसति बालं, निरंतरं तत्थ चिरट्ठितीयं । ण हम्ममाणस्स उ होइ ताणं, एगो सयं पच्चणुहोई दुक्खं ॥ २२ ॥ संस्कृत छाया एते स्पर्शाः स्पृशन्ति बालं, निरन्तरं तत्र चिरस्थितिकं 1 न हन्यमानस्य तु भवति त्राणं एकः स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखम् ||२२|| अन्वयार्थ सूत्रकृतांग सूत्र ( तत्थ ) वहाँ नरक में (चिरट्ठितीयं) चिरकाल तक निवास करने वाले (बाल) अज्ञानी नारक को (एयाई फासाई) ये पूर्वोक्त स्पर्श यानी दुःख ( निरंतरं ) सदा सतत (फुसंति) पीड़ित करते रहते हैं । ( हम्ममाणस्स उ ) पूर्वोक्त दुःखों से आहत होते हुए नारकी जीव का (ताणं ण होइ ) वहाँ कोई त्राण - रक्षक नहीं होता । सच है, ( एगो सयं दुवखं पञ्चणहोइ) वह अकेला उक्त दुःखों को भोगता है । भावार्थ पहले के दो उद्दे शकों में जिन कठोर दुःखों का वर्णन किया है, उन सब दुःखों का स्पर्श अज्ञानी नारकी जीव को निरन्तर होता रहता है । उन नारकी जीवों की आयु भी लम्बी होती है, और उस दुःख से उनकी रक्षा भी नहीं हो सकती । वह अकेला ही उन दुःखों को भोगता है । उसकी सहायता या रक्षा दूसरा कोई नहीं कर सकता । व्याख्या अकेले ही दीर्घकाल तक दुःखरूप फलभोग फासाइं Jain Education International इस गाथा में उद्दे शक का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार कहते हैं -- 'एयाई 'पच्चणु होइ दुक्खं ।' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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