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नरकाधिकार : पंचम अध्ययन — द्वितीय उद्देशक
संस्कृत छाया
सम्बधिताः दुष्कृतिनः स्तनन्ति, अह्नि च रात्रौ परितप्यमानाः । एकान्तकूटे नरके महति, कूटेन तत्स्थाः विषमे हतास्तु
।। १८ ।।
अन्वयार्थ
(संबाहिया) निरन्तर पीड़ित किये जाते हुए ( दुक्कडिणो ) दुष्कर्म किये हुए पापात्मा नारक ( अहो य राओ परितप्यमाणा) दिन और रात परिताप -- दुःख भोगते हुए (थति) रोते रहते हैं । ( एगंतकूडे ) एकान्त केवल दुःख के स्थान (महंते ) विस्तृत (विसमे ) ऊबड़खाबड़ या कठिन ( नरए) नरक में पड़े हुए प्राणी ( कूडेण हता उ) गले में फाँसी डालकर मारे जाते हुए ( तत्था ) वहाँ रहने वाले नारकी जीव केवल रोते रहते हैं ।
भावार्थ
सतत पीड़ा दिये जाते हुए पापकर्मी जीव (नारक) अहर्निश संतप्त होते हुए आँसू बहाते रहते हैं । एकान्त रूप से दुःख के पुंज उस विशाल एवं विषम नरक में रहने वाले वे नारक जीव गले में फाँसी डालकर मारे जाते समय केवल रोते रहते हैं ।
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व्याख्या
अब इन आँसुओं का कोई मूल्य नहीं । इस गाथा में सदा और लगातार पीड़ित किये जाते हुए महापापी जीवों के सतत दुःखों से घिरे होने से एकमात्र रुदन का वर्णन है । भला, जो प्राणी अपने पूर्व जीवन में अर्हनश पापों में आकण्ठ डूबा रहा है, उसे अब एकान्त दुःखरूप, अतिविस्तृत एवं विषम नरक में जब निरन्तर तरह-तरह से पीड़ित किया जाता है, और उसके दुःख की कोई फरियाद नहीं होती, तब सिवाय रोने-धोने और हाय-तोबा मचाने के और कोई चारा नहीं रहता । किन्तु अब इन आँसुओं का कोई मोल नहीं, किसी को उनके पूर्वकृत महापापकर्मों कारण उन पर करुणा पैदा नहीं होती ।
मूल पाठ
भंजंति णं पुव्वमरी सरोसं समुग्गरे ते मुसले गहेतु
"
ते भिन्नदेहारुहिरं वमंता, ओमुद्धगा धरणितले पति ||१६||
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संस्कृत छाया
भञ्जन्ति पूर्वारयः सरोषं समुद्गराणि मुसलानि गृहीत्वा ।
"
ते भिन्नदेहाः रुधिरं वमन्तोऽधोमुखाः धरणीतले पतन्ति ॥ १६ ॥
अन्वयार्थ
( समुग्गरे सुसले गहेतु ) मुद्गर और मूसल हाथ में लेकर नरकपाल
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