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अन्वयार्थ
( महाभितावे ) महान् ताप से युक्त ( अंत लिक्खे) आकाश में (एगायते) एक ही शिला से बनाया हुआ अतिविस्तृत ( वेयालिए नाम पव्वयं) वैतालिक - वैक्रिय नाम का एक पर्वत है । (तत्था ) उस पर्वत पर रहने वाले ( बहुकूरकम्मा ) बहुत क्रूर कर्म किये हुए नारकी जीव (सहस्साणं मुहुलगाणं परं हम्मंति) हजारों मुहूर्तों से अधिक काल तक परमधार्मिकों के द्वारा मारे जाते हैं ।
सूत्रकृतांग सूत्रं
भावार्थ
आकाश में महान् ताप से युक्त एक ही शिला से बनाया हुआ अत्यन्त विशाल वैतालिक या वैक्रिय नाम का एक पर्वत है । उस पर्वत पर रहने वाले अतिक्रूरकर्मा नारकी जीव हजारों मुहूर्तों से अधिक काल तक परमाधार्मिकों के द्वारा मारे जाते हैं ।
व्याख्या
आकाशस्थ विशाल वैतालिक पर्वत : नारकों के लिए महाकाल इस गाथा में नरक में स्थित एक वैतालिक ( वैक्रिय) नाम के विशालकाय पर्वत का उल्लेख किया है, जो नारकों के लिए सन्तापजनक महाकाल - सा संहारक है । वास्तव में नरक में स्थित यह पर्वत प्राकृतिक ( कुदरती ) नहीं है, वह कृत्रिम ( बनावटी) है, इसीलिए आकाश में अधर बनाया गया है। सिर्फ एक बहुत विशाल शिला से ही वैताल की तरह भीमकाय यह पर्वत परमाधार्मिकों ने वैक्रियशक्ति द्वारा बनाया है । इसीलिए इसका नाम वैतालिक तथा अपर नाम वैक्रिय प्रसिद्ध है । यह पर्वत घोर अन्धकाररूप है, इसलिए इसे महाभिताप ( महान् सन्ताप से युक्त ) कहा गया गया है । स्पष्ट शब्दों में कहें तो यह महाकाय दैत्याकार पर्वत नारकों के लिए महाकालरूप है । क्योंकि नारक लोग नरक के अतितापजन्य महादु:ख से बचने के लिए इस अन्धकारमय पर्वत पर हाथ के स्पर्श से चढ़ने लगते हैं, उस समय परमाधार्मिक असुर उन पर शिला आदि पटक कर उन्हें मारते हैं । अत: सुख के बदले उनके पल्ले अत्यन्त दुःख ही पड़ता है । प्रश्न होता है, परमाधार्मिकों द्वारा इस पर्वत के माध्यम से दुःख देने का क्रम कब तक चलता है ? शास्त्रकार कहते हैं- " परंस हस्ताणं मुहुत्तगाणं हम्मंति' अर्थात् हजारों मुहूर्तों से अधिक काल तक नारकी जीव यहाँ मारे जाते हैं । यहाँ सहस्र शब्द उपलक्षण है, इसलिए चिरकाल तक वे मारे जाते हैं, ऐसा समझ लेना चाहिए । नारकों को मारने व दुःख देने के लिए ही परमधार्मिकों द्वारा यह विशालकाय कृत्रिम पर्वत रचा गया है ।
मूल पाठ
संवाहिया दुक्कडिण थणंति, अहो य राओ परितप्यमाणा । एगंतकूडे नरए महंते, कूडेण तत्था विसमे हता उ
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