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________________ नरकाधिकार : पंचम अध्ययन-द्वितीय उद्देशक संस्कृत छाया बाला: बलाद् भूमिमनुक्राम्यमाणा:, पिच्छिलां कण्टकिलां महतीम् । विबद्धतः विषण्णचित्तान समीरिताः कोट्टबलि कुर्वन्ति ॥१६॥ अन्वयार्थ (बाला) बालक के समान पराधीन बेचारे नारकी जीव नरकपालों द्वारा (बला) बलात्कार से (पबिज्जलं) कीचड़ से भरी (कंट इल) और काँटों से परिपूर्ण (महंतं भूमि) विस्तृत भूमि पर (अगुक्कमंता) चलाये जाते हैं । (समीरिया) पापकर्म से प्रेरित नरकपाल (विसण्णचित्ते) मूच्छित या दूसरे नारकी जीवों को (कोट्टबलि करिति) खण्डश: काट-काटकर नगरबलि के समान इधर-उधर फेंक देते हैं। भावार्थ पाप से प्रेरित नरकपाल बालकवत् परवश बेचारे नारकी जीवों को कीचड़ से लथपथ एवं कांटों से भरी विशाल पृथ्वी पर चलने के लिए बाध्य कर देते हैं। तथा अनेक प्रकार के बंधनों से बाँधे हुए तथा विषण्ण चित्त संज्ञाहीन बेचारे दूसरे नारकी जीवों को खण्ड-खण्ड करके नगरबलि के समान इधर-उधर फेंक देते हैं। व्याख्या यातना पर यातना ! इस गाथा में पहले कही बात को फिर दुहराया गया है । इस प्रकार पुनरुक्ति करने का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि नरकभूमि की भयंकरता हृदयंगम हो जाए। बेचारे नारकी जीवों को पहले तो भूमि ही दुःखपूर्ण मिलती है, उस पर नरकपाल लोग बरबस उन्हें कीचड़ से लथपथ एवं काँटों से भरी बहुत विशाल जमीन पर धीमे चलने पर दौड़ने के लिए बाध्य कर देते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य मूच्छित या विषण्णचित्त नारकों को अनेक प्रकार से बाँधकर पापकर्म से प्रेरित नरकपाल खण्डखण्ड काटकर नगरबलि के समान इधर-उधर फेंक देते हैं। उसके शरीर की बोटीबोटी करके बलि कर देते हैं । निष्कर्ष यह है कि वेचारे नारकों को नरक में यातना पर यातना प्राप्त होती है। मूल पाठ वेतालिए नाम महाभितावे, एगायते पव्वयमंतलिक्खे । हम्मति तत्था बहुकूरकम्मा परं सहस्साण मुहुत्तगाणं ।।१७।। संस्कृत छाया वैतालिको नाम महाभिताप एकायतः पर्वतोऽन्तरिक्षे । हन्यन्ते तत्स्थाः बहुक्रूरकर्माणः परं सहस्राणां मुहूर्त्तकाणाम् ।।१७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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