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________________ सूत्रकृतांग सूत्र रहती है। कुछ पुण्य राशि बढ़ने पर एकेन्द्रिय से क्रमशः द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तक पहुँचा, किन्तु इन भवों में भी यद्यपि चेतना का विकास तो उत्तरोत्तर बढ़ा, मगर इतना चेतना का विकास होने पर भी अपने स्वरूप का बोध प्राप्त होना दुःशक्य था । अतः अपने स्वरूप का-आत्मा का - भान होना इन विकलेन्द्रिय जीवयोनियों में जन्म लेने पर भी असंभव था, अत: बोध न हो सका। इसके बाद तिर्यंच पंचेन्द्रिय में जन्म ग्रहण किया, लेकिन वहाँ भी असंज्ञी जीव को बोध होना दुःशक्य था, क्योंकि असंज्ञी के द्रव्यमन न होने से वह स्पष्ट विचार नहीं कर सकता । तिर्यन्च पंचेन्द्रिय संज्ञी जीवयोनि में जन्म लेने पर भी किसी-किसी जीव को, पूर्वजन्मकृत ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम व श बोध हो सकता है, जैसे ज्ञातासूत्र में वर्णित 'नन्दनमणिहार' के जीव को मेढ़क की योनि में जन्म लेने पर पूर्व जन्म के स्मरण होने से बोध हो गया था, और उसी बोध के फलस्वरूप उसने स्वयं श्रावक व्रत ग्रहण किये तथा भगवान महावीर के दर्शनार्थ फुदकता हुआ जाने लगा । कई हाथियों, बैलों, कुत्तों, घोड़ों आदि पशुओं को पूर्वजन्म के स्मरणवश कभी-कभी यत्किचित् बोध हो जाता है, परन्तु वह भी किसी विरले ही तिर्यन्च जीव को होता है । इसलिये कहना चाहिए कि तिर्यन्च पचेन्द्रिय में भी बोध होना अत्यन्त दुर्लम है । इसके पश्चात असीम पुण्यपुंज एकत्रित होने पर मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ, किन्तु मनुष्य जन्म मिलने के बावजूद भी अगर अनार्य क्षेत्र, अनार्य कुल में किसी हिंसक पापात्मा के यहाँ जन्म हुआ तो वहाँ भी आत्मबोध प्राप्त होना प्रायः अत्यन्त दुलंभ होता है क्योंकि वहाँ का वातावरण ही प्रायः अपने शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति मोह, ममत्व या स्वार्थ का होता है। उन मनुष्यों को यह भान ही नहीं होता कि मैं कौन हूँ ? मेरी आत्मा इस मनुष्य जन्म में कैसे आई है ? अब आगे मुझे क्या करना चाहिए ? मेरी आत्मा के विकास के लिये साधक-बाधक कौन-कौन से तत्त्व हैं ? इस प्रकार का बोध भी पूर्वजन्मकृत पुण्य तथा ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से मिलता है। मनुष्य जन्म में आर्यक्षेत्र मिला, परन्तु उत्तम कुल नहीं मिला; उत्तम कुल प्राप्त हुआ, किन्तु पाँचों इन्द्रियाँ या शरीर के अंगोपांग पूर्ण और स्वस्थ और सशक्त न मिले तो फिर वही समस्या सामने आकर खड़ी हो गई । ये सब संयोग तो मिले किन्तु दीर्घ आयुष्य न मिला, बोध (समझ) पाने के योग्य वय होने से पहले ही इस संसार से चल बसे, अथवा जन्म लेते ही रोग लग गया, या बोध प्राप्ति की क्षमता के योग्य होने से एक दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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