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समय : प्रथम अध्ययन-प्रथम उद्देशक
वर्ष पहले ही असाध्य रोग से ग्रस्त हो गए तो फिर वही बोधदुर्लभता सामने आ गई।
इसीलिये सूत्रकार गणधर भगवान महावीर के उपदेश को भव्यजीव के समक्ष दोहराते हैं 'बुज्झिज्जत्ति' अथात मनुष्य को बोध प्राप्त करना चाहिए। क्योंकि पूर्वोक्त कारणों से एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक और मनुष्य जन्म तक कितने-कितने जन्म हो गए होंगे, जिनमें बोध की एक बूंद भी नहीं मिल सकी, और अब मनुष्य जन्म मिला है, उत्तम शरीर मिला है तथा आर्यक्षेत्र, आर्यकुल, स्वस्थ इन्द्रियाँ, तन-मन एवं दीर्घ आयुष्य मिला तो इसमें सबसे दुर्लभ, सर्वश्रेष्ठ एवं महत्त्वपूर्ण वस्तु बोध है, उसे प्राप्त करने का प्रयास करो। यह इस विधि-पद का रहस्य है।
बोध क्या और किसका ? अब इसी पद में गर्भित प्रश्न उठते हैं-बोध क्या है, जिसे प्राप्त करने के लिये भगवान् महावीर का उपदेश है ? तथा बोध किसका प्राप्त करना चाहिए ? ये दोनों प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और इन्हीं दो प्रश्नों रूपी खंभों पर उद्देशकरूपी प्रासाद खड़ा है।
यद्यपि इसी गाथा में आगे चलकर केवल बन्धन का बोध करने की बात सूचित की है, तथापि भगवान महावीर का आशय सर्वप्रथम तो आत्मबोध करने से है । इतने योग्यतम सुदुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर यदि अब भी आत्मस्वरूप का बोध प्राप्त नहीं किया तो फिर यह अवसर बार-बार नहीं मिलेगा। यदि तुम यह सोचते हो कि इस जन्म में तो विषयभोग का आनन्द लूट लें, अगले जन्म में
१. देखिये भगवान महावीर द्वारा आगमों में प्ररूपित बोधिदुर्लभता के उद्धरण
'संबोही खलु दुल्लहा'-बोधि (सम्यक् ज्ञान और सम्यग्दर्शन) की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है । (सूत्र० २, अ० १, उ० १) 'णो सुलह बोहि च आहियं बोधि सुलभ नहीं बताई है । (सूत्र. २, १६, उ० ३) 'सुदुल्लहं हिउ बोहिलाभं विहरेज्ज' सुदुर्लभ बोधि को प्राप्त करके आत्मकल्याण के मार्ग पर विचरण करो। (आ० १७, १) 'बहुकम्मलेव लित्ताणं बोही होइ सुदुल्लहा' ---- भारी कर्मों से लिप्त
भोगों में ग्रस्त जीवों को बोध प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है । (उ० ८, १५) २. संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा ।
-संबोध प्राप्त करो, सम्बोध प्राप्त क्यों नहीं करते हो ? परलोक में सम्बोधि अवश्य ही दुर्लभ है।
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