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नरकाधिकार : पंचम अध्ययन--द्वितीय उद्देशक
संस्कृत छाया चिताः महती: समारभ्य, क्षिपन्ति ते तं करुणं रसन्तम् । आवर्तते तत्रासाधुकर्मा, सपिर्यथा पतितं ज्योतिर्मध्ये ।।१२।।
अन्वयार्थ (ते) वे परमाधार्मिक (महंती उ चिया) बहुत बड़ी चिता (समारभित्ता) रचकर (कलुणं रसंत तं) करुण स्वर से विलाप करते हुए उस नारकी जीव को (छुम्भंति) उसमें झोंक देते हैं। (तत्थ) उसमें (असाहुकम्मा) पापकर्मी नारक (आवती ) पिघल जाता है, (जहा) जैसे (जोइमज्झे पडियं सप्पी इव) आग में पड़ा हुआ घी पिघल जाता है।
भावार्थ वे परमाधार्मिक असुर बड़ी भारी चिता बनाकर उसमें करुणस्वर से रोते-बिलखते हुए उस नारकी जीव को झोंक देते हैं, उसमें पड़कर वह पापी जीव उसी तरह पिघलकर पानी-सा हो जाता है, जैसे आग में डाला हुआ घृत पिघलकर पानी-सा हो जाता है।
व्याख्या
प्रज्वलित चिता में झोंक देने पर भी पानी-पानी इस गाथा में यह बताया गया है कि नरकपाल नारकी जीवों को (सजा) दुःख देने के लिए एक विशाल चिता बनाते हैं, उसे प्रज्वलित करते हैं और धू-धू जलती हुई उस चिता में पापी नारकों को झोंकते जाते हैं । पर आश्चर्य यह है कि वह जलकर भी मरता नहीं । जैसे अग्नि में घी डालने से वह एकदम पिघल जाता है, वैसे ही नारकी जीव का शरीर चिता में डालते ही पिघलकर पानी-सा हो जाता है । फिर वह पूर्ववत् हो जाता है, और फिर उसके साथ अनेक तरह से खिलवाड़ की जाती है । यह क्रम रातदिन निरन्तर चलता रहता है । न रात को चैन, न दिन को चैन ! सारी जिंदगी इस प्रकार रोने-धोने में बीतती है। नरक इस प्रकार से शोकसन्ताप का घर है।
मूल पाठ सदा कसिणं पुण धम्मठाणं, गाढोवणीयं अइदुक्खधम्मं । हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं, सत्तु व्व डंडेहि समारभंति ॥१३॥
संस्कृत छाया सदा कृत्स्नं पुनर्घर्मस्थानं गाढोपनीतं अतिदुःखधर्मम् । हस्तश्च पादश्च बद्ध वा, शत्रुमिव दण्डै: समारभन्त ।।१३।।
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