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________________ ६२० अन्वयार्थ ( पुण) फिर (सया ) सदैव - तीनों काल में, ( कसिणं ) सारा का सारा ( धम्मठाणं) एक उष्ण स्थान है जो ( गाढोवणीयं ) निधत्त, निकाचित आदि रूप में गाढबन्ध से बद्धकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होता है ( अइदुक्खधम्मा) जिसका स्वभाव अत्यन्त दु:ख देना है | ( तत्थ) उस दुःख परिपूर्ण नरक में (हत्थे हि पाएहि य बंधिऊणं) हाथ और पैर बाँधकर ( सत्तव्व ) शत्रु की तरह नरकपाल ( डंडेहि) डंडों से ( समारभंति) मारते-पीटते हैं । सूत्रकृतांग सूत्र भावार्थ निरन्तर जलने वाला पूरा का पूरा एक गर्म स्थान है, जो नारक जीवों को निधत्त निकाचित आदि रूप से बद्ध क्रूर कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होता है, जिसका स्वभाव ही अत्यन्त दुःख देने का है । उस नरकस्थान में नारक के हाथ-पैर बाँधकर दुश्मन की नरकपाल डंडों से पीटते हैं । व्याख्या एक तो सदा गर्म स्थान, फिर डंडों से पिटाई ! इस गाथा में इस बात को फिर दोहराया गया है कि एक नरकस्थान ऐसा है, जहाँ हरदम हर कोना आग की तरह जलता है । इतनी डिग्री का तापमान होता है कि मनुष्यलोक का प्राणी तो उसे एक क्षण भी नहीं सह सकता । नारकी जीव उसमें सदा सिकते रहते हैं, दुःख पाते रहते हैं । प्रश्न होता है, ऐसा सदा अत्यन्त उष्ण जलवायु वाला स्थान उन नारकों को क्यों मिलता है ? क्या कोई उपाय ऐसा भी है, जिससे वह स्थान टाला जा सके ? शास्त्रकार इसके उत्तर में कहते हैं 'गाढवणीय' । आशय यह है कि नारकों को वह स्थान निधत्त या निकाचित रूप से गढ़बन्धन से बद्ध पापकर्मों के फलस्वरूप मिलता है, और वह मिलता है -अनिवार्य | उसे कथमपि टाला नहीं जा सकता । जो कर्म निकाचित रूप से बँध जाते हैं, उन्हें भोगे बिना कोई छुटकारा नहीं होता । उसमें वे जीव निरुपाय हो जाते हैं । खैर, उन्हें अत्यन्त गर्म स्थान तो मिला, पर दुर्भाग्य यह है कि वहाँ भी नरकपाल उन्हें चैन से बैठने नहीं देते, दुश्मन की तरह उनकी आँखों में खून उतर आता है और वे उन नारकों के हाथ-पैर बांधकर डंडों से पिटाई करने पर पिल पड़ते हैं । मूल पाठ भजंति बालस्स वहेण पुट्ठीं, सीसंपि भिदंति अओघह । ते भिन्नदेहा फल व तच्छा, तत्ताहि आराहि नियोजयंति || १४ || संस्कृत छाया भञ्जति बालस्य व्यथेन पृष्ठिं शीर्षमपि भिन्दन्त्योघनैः 1 त े भिन्नदेहा फलकमिव तष्टास्तप्ताभिराराभिर्नियोज्यन्ते || १४ || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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