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सूत्रकृतांग सूत्र
को सदा हर तरह से सत्ताप देने वाली है, उसे संतापनी कहते हैं, वह कभी नरक है, जिसकी स्थिति दीर्घकालिक है। कुम्भी नरक में गया हुआ नारकी जीव चिरकाल तक रहकर वहाँ नाना प्रकार की वेदनाएँ भोगता रहता है। वहाँ वही जीव जाता है, जिसने पूर्वजन्म में बहुत पापकर्म किये हों। सचमुच जीव की यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।
मूल पाठ कंदूसु पक्खिप्प पयंति बालं, ततोवि दड्ढा पुण उप्पयंति । ते उड् ढकाएहिं पखज्जमाणा, अवरेहि खज्जति सणप्फएहि ॥७॥
संस्कृत छाया कन्दस प्रक्षिप्य पचन्ति बालं, ततोऽपि दग्धाः पुनरुत्पतन्ति । ते ऊर्बकायैः प्रखाद्यमाना अपरैः खाद्यन्ते सनखपदैः ॥७॥
अन्वयार्थ (बालं) अज्ञानी नारकी जीव को (कंदुसु) गेंद के समान आकार वाले नरक में (पक्खिप्प) डालकर (पयंति) परमाधार्मिक पकाते हैं। (दड्ढा) जलते हुए वे नारकी जीव (ततोवि) वहाँ से (पुण उप्पयंति) फिर ऊपर उड़ जाते हैं, (ते) वे नारकी जीव (उड्ढकाएहि द्रोणकाक के द्वारा (खज्जति) खाए जाते हैं। (अवरेहि सणप्कएहि) तथा दूसरे सिंह, व्याघ्र आदि के द्वारा भी खाए जाते हैं।
भावार्थ नरकपाल, अज्ञानी नारक को गेंद के-से आकार की कुम्भी में डालकर पकाते हैं। फिर वे जलते हुए वहाँ से भूने जाते हुए चने की तरह ऊपर उछल जाते हैं। वहाँ द्रोणकाक (एक प्रकार के शिकारी कौए) उन पर ट पड़ते हैं, वहाँ से जब वे दूसरी ओर जाते हैं, सिंह बाघ आदि के द्वारा खाए जाते हैं।
व्याख्या नारक गेंद के समान आकार की नरककुम्भी में
इस गाथा में यह बताया गया है कि नारकी जीवों को परमाधार्मिक किसकिस प्रकार की यातनाएँ देते हैं। बेचारे नारकों को नरकपाल गेंद के समान आकार वाली नरककुम्भी में डालकर पकाते हैं। चने की तरह पकाते हुए वे जीव वहाँ से उछलकर ऊपर उड़ जाते हैं। जहाँ वैक्रिय से बने हुए द्रोणकाक उन्हें खाने को टूट पड़ते हैं। वहाँ से दूसरी ओर जाते हैं तो सिंह व्याघ्र आदि नखवाले हिंसक जानवरों द्वारा वे खा डाले जाते हैं । कितनी विडम्बना है, नारकों के जीवन में ! यह सब स्वकृत पापकर्मों का ही खेल है।
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