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________________ ६०६ सूत्रकृतांग सूत्र शास्त्रकार के इस वाक्य को हृदयंगम कर लो कि जिसने जैसा कर्म किया है, उसे उसके अनुसार ही पापकर्म फलस्वरूप दु:ख की प्राप्ति होती है । मूल पाठ समज्जिणित्ता कलुसं अणज्जा, इटठेहि कंतेहि य विप्पणा । ते दुन्भिगंधे कसिणे य फासे, कम्मोवगा कुणिमे आवसंति ॥२७॥ त्ति बेमि॥ संस्कृत छाया समय॑ कलुषमनार्याः, इष्टैकान्तैश्च विप्रहीना: ते दुरभिगन्धे कृत्स्ने (कृष्णे) च स्पर्शे, कर्मोपगाः कुणिमे आवसन्ति ॥२७॥ ॥ इति ब्रवीमि ॥ अन्वयार्थ (अणज्जा) अनार्य पुरुष (कलुसं समज्जिणिता) पाप उपार्जन करके (इठेहि कंतेहि य विप्पहूणा) इष्ट और प्रिय रूपादि विषयों से रहित-वंचित होकर (कम्मोवगा) कर्मों के वशीभूत होकर (दुब्भिगंधे) दुर्गन्ध से भरे, (कसिणे य फासे) अशुभ स्पर्श वाले (कुणिमे) मांस-रुधिरादि से परिपूर्ण नरक में (आवसंति) जमकर निवास करते हैं । (त्ति बेमि) ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ अनार्य पुरुष पापकर्मों का उपार्जन करके इष्ट और प्रिय शब्दादि से रहित होकर कर्मों के वश दुर्गन्ध से भरे, अशुभ स्पर्श से युक्त मांस रक्त आदि से परिपूर्ण नरक में चिरकाल तक जमकर निवास करते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ। व्याख्या अनार्य पुरुषों का इष्ट स्पर्शादि से रहित होकर नरक निवास __इस गाथा में प्रथम उद्देशक का उपसंहार करते हुए शास्त्र कार ने नरक का संक्षिप्त स्वरूप और अनार्यों का वहाँ इष्ट शुभ विषयों से रहित होकर रहना बता दिया है। अनार्य पुरुष वे हैं, जो अनार्यकर्म या हिंसा, झूठ, चोरी आदि आस्रवों का सेवन करके अत्यन्त अशुभकर्मों का उपार्जन एवं वृद्धि कर लेते हैं। वे क्रूरकर्मी जीव, जो नरक में चिरकाल तक डेरा जमाए रहते हैं, उसका फल बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं-वे नरक में आकर अशुभ दुर्गन्धयुक्त स्थान में रहते हैं, तथा शब्दादि पंचेन्द्रिय विषयों से एवं इष्ट मनोज्ञ पदार्थों से वंचित (रहित) होकर रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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