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अन्वयार्थ
( तिप्पमाणा ) जिनके अंगों से खून बह रहा है, ऐसे (ते) वे (बाला) अज्ञानी नारक ( तालसं पुडंव) सूखे ताल के पत्तों के समान ( राइ दियं ) रातदिन ( तत्थ ) उस नरक में (थति) जोर-जोर से चिल्लाते रहते हैं । ( पज्जोइया) आग में जलाकर ( खारपइद्धियंगा ) फिर उन अंगों पर खार ( नमक आदि ) लगा देते हैं, जिससे (सोणिअपूयमंसं ) उनके अंगों से निरन्तर खून, मवाद और मांस (गलं ति) गिरते रहते हैं । भावार्थ
सूत्रकृताग सूत्र
वे अज्ञानी नारकी जीव अपने अंगों से खून टपकाते हुए सूखे हुए ताल के पत्तों के समान रातदिन आर्तशब्द करते रहते हैं । तथा आग में जलाकर बाद में उन अंगों पर खार लगाये हुए वे नारकी जीव अपने अंगों से रक्त, मवाद और मांस टपकाते रहते हैं ।
व्याख्या
नारकों के अंगों से रक्तादि-स्राव एवं आर्तनाद
इस गाथा में नारकी जीवों के अंगों से रक्त, मवाद आदि के टपकते रहने तथा दुःखपीड़ित होने के कारण अहर्निश आर्तनाद करने का वर्णन किया गया है । परमधार्मिक असुरों ने जिन नारकों के नाक, ओठ और कान काट लिये हैं, उनके उक्त अंगों से रातदिन रक्त, मवाद और मांस टपकते रहते हैं, वे जिस स्थान में रहते हैं, वहाँ रातदिन वे विवेकमूढ़ ताल के सूखे पत्तों के नाद करते रहते हैं । जिन अंगों को आग में झुलसा दिया जाता है, खार छिड़कते रहते हैं, उन्हीं अंगों से वे खून, मवाद और मांस कितना दुःखमय एवं शोक - क्रन्दन से पूर्ण जीवन है नारकों का ?
समान सदा आर्त
मूल पाठ
जइ ते सुता लोहितपूयपाइ बालागणी तेअगुणा परेणं । कुंभी महंताहियपोरसीया, समुस्सिता लोहियपूयपुण्णा ||२४||
संस्कृत छाया
उन पर ये असुर टपकाते रहते हैं ।
यदि ते श्रुता लोहितपूयपाचिनी बालाग्निना तेजोगुणा परेण । कुम्भी महत्यधिकपौषीया समुच्छ्रिता लोहितपूयपूणां
॥२४॥
अन्वयार्थ
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( लोहितपूयपाइ) रक्त और मवाद को पकाने वाली ( बालागणी तेअगुणा परेण ) नई सुलगाई हुई अग्नि के ताप के समान जिसका गुण है, अर्थात् जो अत्यन्त तेज ताप से युक्त है (महंता ) बहुत विशाल है, ( अहियपोरसीया) पुरुष के प्रमाण से
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