________________
नरकविभक्ति : पंचम अध्ययन--प्रथम उद्देशक
५६७
भावार्थ जैसे किसी नगर में दंगा या कत्लेआम (सामहिक वध) होते समय नगरनिवासी जनता का भयंकर कोलाहल सुनाई देता है, उसी तरह नरक में भी नारकी जीवों का हाहाकार से भरा भयंकर रुदन शब्द सुनाई देता है, उन शब्दों के सुनने से सहृदय पुरुष को करुणा पैदा हो जाती है। जिनके मिथ्यात्व आदि कर्म उदय में आ गए हैं, वे परमाधार्मिक असुर जिनके पापकर्म उदय (फल देने की स्थिति) में आ गए हैं, उन नारकों को पुनः पुनः उत्साहपूर्वक पीड़ा देते हैं।
व्याख्या
नरक के जीवों का भयंकर हाहाकार और दुःख इस गाथा में नरक में होने वाले करुणापूर्ण महान् हाहाकार को नगर में होने वाले कत्लेआम के समय के हाहाकार के साथ तुलना की गई है। 'से' शब्द यहाँ 'अथ'--'इसके पश्चात्' अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अर्थात् नरक के जीवों पर जब शीत, उष्ण आदि के भयंकर तीव्र प्राकृतिक दुःख, पारस्परिक दुःख एवं परमाधार्मिक कृत दुःख एकदम टूट पड़ते हैं, तब वे जो आर्तनाद करते हैं, करुणाजनक विलाप करते हैं, हे मात ! हे तात ! बड़ा कष्ट है, मैं अनाथ और अशरण हूँ, कहाँ जाऊँ, कैसे इस कष्ट से बचूँ ? मेरी रक्षा करो ! इस प्रकार के करुणाप्रधान शब्दों में वे पुकार करते हैं, उस समय का कोलाहल इतना भयंकर होता है कि उसे सुनकर कान के पर्दे फट जाते हैं । उस कोलाहल की उपमा शास्त्रकार ने नगर में होने वाले दंगे या सामुहिक वध के समय होने वाले कोलाहल से दी है । वस्तुत: नरक का कोलाहल नगरवध के समय के कोलाहल से भी कई गुना बढ़कर तेज, मर्मभेदी एवं करुणो. त्पादक होता है।
गाथा के उत्तरार्द्ध में शास्त्रकार सैद्धान्तिक दृष्टि से एक बात की ओर इंगित करते हैं-'उदिण्णकम्माण उदिण्णकम्मा'.." सरहं दुहेति ।' नारकी जीवों को दुःख कौन देता है ? तथा उन्हें ये सब दुःख क्यों प्राप्त होते हैं ? इसके उत्तर में शास्त्रकार का कथन है कि जिनके पापकर्म उदयावस्था को प्राप्त हुए हैं, उन्हें ही ये सब नरकगत दु:ख प्राप्त होते हैं, तथा जिनके मिथ्यात्व, हास्य, रति आदि उदय में विद्यमान हैं, वे परमाधार्मिक असुर नारकों को बार-बार भयंकर क्रूरता, द्वेष, रोष आदि आवेश में आकर असह्य दुःख देते हैं।
मूल पाठ पाणेहि णं पावा विओजयंति, तं भे पवक्खामि जहातहेणं । दंडेहि तत्थ सरयंति बाला, सव्वेहिं दण्डेहिं पुराकएहि ॥१६॥
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org