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________________ ५६६ सूत्रकृतांग सूत्र जब अपनी ठंड मिटाने के लिए नरक में अत्यन्त तीव्ररूप से जलती हुई उत्तप्त आग के पास जाते हैं, मगर वहाँ भी बेचारे सूख नहीं पाते । एक ओर तो बेचारे नारक उस भयंकर अग्नि के तीव्र ताप से संतप्त होते हैं फिर भी दूसरी ओर वे परमाधार्मिक असुर उन्हें और अधिक जलाते तथा संतप्त करते हैं। व्याख्या एक तो नरक का ताप, उस पर नरकपालों का सन्ताप __इस गाथा में शास्त्रकार नारकी जीवों को होने वाले दोहरे दुःखों का वर्णन करते हैं । निष्कर्ष यह है कि नरक महान् दु:खों का स्थान है। इसमें कहीं भी, किसी भी कोने में, किसी भी समय में, किसी भी स्थिति में, किसी भी निमित्त से कोई सुख नहीं है । काल की कोठरी की तरह चारों ओर दुःख ही दुःख से नरक भरे हैं। फिर जीव चाहता तो सूख ही है। नारकी जीव भी अत्यन्त शीत के दुःख से बचने के लिए अत्यन्त प्रदीप्त अग्नि के पास जाते हैं, परन्तु वह आग तो अत्यन्त दाहक होती है, उसमें वे झुलसने लगते हैं । जाते हैं सुख की आशा से, पर मिलता है, पहले से भी अधिक दुःख । वहाँ भी उन्हें जरा-सा भी सुख नहीं मिलता। आश्चर्य तो यह है कि एक ओर तो वे बेचारे नारकी जीव उस आग में पहले से ही अत्यन्त तपे हुए होते हैं, उस पर दुष्ट परमाधार्मिक असुर और अधिक ताप तरह-तरह से देते हैं। उनके जले पर नमक छिड़कते रहते हैं । मूल पाठ से सुच्चइ नगरवहे व सद्दे, दुहोवणीयाणि पयाणि तत्थ । उदिण्णकम्माण उदिण्णकम्मा, पुणो पुणो ते सरहं दुहेति ॥१८॥ संस्कृत छाया अथ श्र यते नगरवध इव शब्द:, दुःखोपनीतानि पदानि तत्र। उदीर्णकर्मण उदीर्णकर्माणः पुनः पुनस्ते सरभसं दुःखयन्ति ॥१८॥ अन्वयार्थ (से) इसके पश्चात् (तत्थ) उस नरक में (नगरवहे व सद्दे) नगरवध (शहर में कत्लेआम) के समय होने वाले कोलाहल के-से शब्द (सुच्चइ) सुनाई पड़ते हैं। साथ ही वहाँ (दुहोवणीयाणि पयाणि) दुःख से भरे करुणाजक शब्द भी सुनाई देते हैं । (उदिण्णकम्मा ते) जिनके मिथ्यात्व आदि जनित कर्म उदय में आए हुए हैं, वे परमाधार्मिक नरकपाल (उदिण्णकम्माण) जिनके पापकर्म उदय (फल देने की दशा) में आये हुए हैं, उन नारकी जीवों को (पुणो पुणो) बार-बार (सरह) तीव्र वेग से (दुहेंति) पीड़ित करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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