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________________ ५६८ संस्कृत छाया प्राणैः पापा वियोजयन्ति तद्भवदभ्यः प्रवक्ष्यामि याथातथ्येन । दण्डैस्तत्र स्मरयन्ति बालाः सर्वैः दण्डैः पुराकृतैः ॥१६॥ सूत्रकृतांग सूत्र अन्वयार्थ ( पावा) पापी नरकपाल (पाणेहि विओजयंति ) नारकी जीवों के अंगों को काटकर अलग-अलग कर देते हैं, (तं) इसका कारण मैं ( भे) आपको ( जहात हेण ) यथार्थ रूप से ( पक्खामि ) कहूँगा । ( बाला) अज्ञानी नरकपाल (दंडे हि) नारकी जीवों को दण्ड देकर (सव्वेहि पुराकएहि दंडेहि) उनके दण्ड के कारणभूत समस्त पूर्वकृत पापों का ( सरयंति) स्मरण कराते हैं । भावार्थ पापात्मा परमधार्मिक असुर नारकी जीवों के अंगों को काटकर अलग अलग कर देते हैं, इसका कारण मैं आपको बताऊँगा । वास्तव में वे अज्ञानी नरकपाल नरक के जीवों के द्वारा पूर्वजन्म में दूसरे प्राणियों को दिये गए दण्ड ( पूर्वजन्मकृत दण्डरूप समस्त पापकर्मों) के अनुसार ही दण्ड देकर उन्हें उनके पूर्वकृत पापकर्मों की याद दिलाते हैं । व्याख्या पूर्व दिये गए दंड के अनुसार ही दंड नरकपाल इसके पीछे कौन-सा कारण इस गाथा में नरकपालों द्वारा वर्तमान नरकभव में नारकीयों को दिये जाने वाले दण्ड का मूल कारण बताया गया है कि पापकर्मा नारकी जीवों के अंगों को काट-काट कर उन्हें पृथक्-पृथक् कर देते हैं, है ? इसका कारण सर्वज्ञ वीरप्रभु स्वयं बताने की कृपा करते हैं । विवेकमूढ़ परमाधार्मिक असुर नारकों को नाना प्रकार का दण्ड देते समय उन्हें उनके द्वारा पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों का इस प्रकार स्मरण कराते हैं – " मूर्ख ! तू बड़े हर्ष के साथ प्राणियों का मांस काट-काट कर खाता था, तथा उनका रक्त पीता था एवं मंदिरापान व परस्त्रीगमन करता था । अपने किये हुए उन पापकर्मों को याद कर । अब उन्हीं पापकर्मों का फल भोगते समय तू इस प्रकार क्यों चिल्लाता है ? क्यों हायतोबा मचाता है ? इस प्रकार परमाधार्मिक नरकपाल नारकी जीवों द्वारा पूर्वजन्म में दूसरे प्राणियों को जो जो दण्ड दिये हैं- हानि पहुँचाई है, उन सभी का स्मरण कराते हुए तदनुसार दण्ड ( दुःखरूप) देकर उन्हें पीड़ित करते हैं । मूल पाठ ते हम्ममाणा णरगे पडंति, पुन्ने दुरुवस्स महाभितावे ते तत्थ चिट्ठति दुरूवभक्खी, तुटंति कम्मोवगया किमीहि ॥२०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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