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सूत्रकृतांग सूत्र
अन्वयार्थ (जहि) जिस नरक भूमि में (कूर कम्मा) क्रू र कर्म करने वाले परमाधार्मिक असुर (चत्तारि अगणीओ) चारों दिशाओं में चार अग्नियाँ (समारभित्ता) प्रज्वलित करके (बालं) अज्ञानी नारकी जीव को (अभितविति) तपाते हैं। (ते) वे नारकी जीव (जीवंतुवजोइपत्ता मच्छा व) जीते-जी आग में डाली मछली की तरह (अभितप्पमाणा) ताप पाते-तड़फते हुए (तत्थ) उसी जगह (चिट्ठत) स्थित—पड़े रहते हैं।
भावार्थ उन नरकों में क्र रकर्मा परमाधार्मिक चारों दिशाओं में चार अग्नियाँ जलाकर अज्ञानी नारकों को उनमें तपाते हैं । जैसे जीती हुई मछली आग में डाली जाने पर वह तडफडाती है, वैसे ही बेचारे नारक इस आग में तपते रहते हैं और वहीं आग में जलते हुए पड़े रहते हैं।
व्याख्या नारकों पर कहर बरसाने वाले क्रूरकर्मा नरकपाल
इस गाथा में यह बताया गया है कि क्रूर एवं निर्दयता की प्रतिमूर्ति नरकपाल नारकों पर किस प्रकार कहर बरसाते हैं। वे अकारण ही चारों दिशाओं में आग जलाकर पूर्वजन्म में पाप किये हुए अज्ञानी नारकी जीव को भट्टी की तरह अत्यन्त ताप देते हुए पकाते हैं । नारक को भी आग के पास जबरन धकेल देते हैं। बेचारे नारकी अपने कर पापकर्मवश उसी महादुःखद नरक में पैदा होते हैं, चिरकाल तक रहते हैं, और फिर उसी जगह स्थित रहते हैं। आग में डाली हुई जीवित मछली जैसे परवशता के कारण अन्यत्र नहीं जा सकती, उसी जगह स्थित रहती है, वैसे ही नारक भी वहीं स्थित रहते हैं, इधर-उधर नहीं जा सकते ।
मूल पाठ संतच्छणं नाम महाहितावं, ते नारया जत्थ असाहुकम्मा । हत्थेहिं पाएहि य बंधिऊणं, फलगं व तच्छंति कुहाडहत्था॥१४॥
संस्कृत छाया संतक्षणं नाम महाभितापं, ते नारका यत्र असाधुकर्माणः । हस्तैश्च पादैश्च बद्ध वा फलकमिव तक्ष्णुवन्ति कुठारहस्ताः ॥१४॥
अन्वयार्थ (महाहितावं) महान् ताप देने वाला (संतच्छणं नाम) संतक्षण नामक एक नरक है, (जत्थ) जिसमें (असाहुकम्मा) बुरा कर्म करने वाले (कुहाडहत्था) हाथों में
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