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नरकविभक्ति : पंचम अध्ययन--प्रथम उद्देशक
अन्वयार्थ (जंसी) जिस नरक में (गुहाए जलणे) गुफा अर्थात् उष्टिका की-सी आकृति वाले नरक में स्थापित अग्नि में (अतिउ) आवृत होकर (अविजाणओ) अपने पाप को न जानता हुआ (लुत्तपण्णो) संज्ञाहीन होकर नारक जीव (डज्झइ) जलता रहता है । (सया य) जो नरक सदा (कलुणं) करुणाजनक है, (घम्मठाणं) पूर्णरूप से ताप का स्थान है तथा (गाढोवणीयं) जो नर क पापी जीवों को बलात्कार से-- अनिवार्यरूप से मिलता है। (अतिदुक्खधम्म) अत्यन्त दुःख देना ही जिसका स्वभाव है । ऐसे स्थान में पापी नार कजीव जाते हैं।
भावार्थ जिस नरक में गुफा (उष्ट्रिका) के आकार में स्थापित की हुई आग में घिरा हआ नारकी जीव अपने पाप को न जानता हआ संज्ञाहीन होकर सदा जलता रहता है। नरकभूमि करुणाजनक है और पूरा का पूरा ताप का स्थान है। पापी जीवों को यह भूमि जबरन प्राप्त होती है, अत्यन्त दुःख देना ही उसका स्वभाव है। पापकर्म से ही वह प्राप्त होती है।
व्याख्या
___ गुफामय आग में सदा जलते हुए ये नारकी इस गाथा में ऐसी नरकभूमि का करुणाजनक निरूपण है, जहाँ बेचारे नारको जीव जबरन ऊँट के आकार की बनी हुई गुफानुमा नरकमि में बलात् धकेल दिये जाते हैं। वहाँ चारों ओर आग ही आग होती है । उस धधकती आग में झुलसते हुए वे वेचारे अपने पाप से अनभिज्ञ तथा संज्ञाहीन नारक अवधि के विवेक से रहित होकर त्राहि-त्राहि मचाते हैं । यह नरक सदा सर्वदा अति करुण है, पूर्णतया ताप का स्थान है, अत्यन्त पापी जीवों को यह नरक बलात् प्राप्त होता है। पापी जीव ही ऐसे स्थान में जाते हैं। इस नरक का स्वभाव ही अतिदुःख देने का है। आँख का एक पलक मारने जितने समय तक भी यहाँ सुखपूर्वक विश्राम नहीं मिलता। सदा दुःख ही दुःख भोगते रहना है ।
मूल पाठ चत्तारि अगणीओ समारभित्ता, जहिं कूरकम्माऽभिविति बालं। ते तत्थ चिट्ठतऽभितप्पमाणा मच्छा व जीवंतुवजोइपत्ता ॥१३॥
संस्कृत छाया चतसृष्वग्नीन् समारभ्य, यस्मिन् क्रूरकर्माणोऽभितापयन्ति बालम् । ते तत्र तिष्ठन्त्यभितप्यमाना मत्स्या इव जीवन्त उपज्योतिः प्राप्ताः ॥१३॥
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