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अन्वयार्थ
( आसूरियं नाम ) जिसमें सूर्य नहीं है, ऐसा असूर्य नामक नरक ( महाभितावं) महाता से युक्त है, (अंधतमं दुप्पतरं महंत ) तथा जो घने अँधेरे से परिपूर्ण है, दु:ख से पार करने योग्य एवं बहुत बड़ा है । ( जत्थ) तथा जहाँ ( उड़ढ अहेयं तिरियं दिसासु) ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा एवं तिर्यग्दिशाओं में अर्थात् सभी दिशाओं में (समाहिओ अगणी झियाइ) प्रज्वलित अग्नि सदा जलती रहती है, ऐसे नरकों में पापी जीव जाते हैं ।
सूत्रकृतांग सूत्र
भावार्थ
जिसमें सूर्य का अभाव है, जो महाताप से युक्त है, जो सघन अन्धकार से भरा है, जो दुःख से पार करने योग्य है एवं बहुत बड़ा है । जहाँ ऊपर, नीचे और तिरछे यानी समस्त दिशाओं में प्रज्वलित आग निरन्तर जलती रहती है। ऐसे नरकों में पापी जीव जाते हैं ।
व्याख्या
नरक की भयंकरता कितनी ?
इस गाथा में नरक के कुछ विशेषणों का प्रयोग करके उसकी भयंकरता का दिग्दर्शन कराया गया है । सर्वप्रथम विशेषण 'आसूरियं' है, जिसका अर्थ होता हैजिसमें सूर्य नहीं रहता, ऐसा एक असूर्य नाम का नरक है, जो कुम्भीके से आकार का तथा घोर अन्धेरे से भरा होता है । अथवा सभी नरकों को असूर्य कहते हैं । वह सूर्य से रहित होते हुए भी सूर्य से भी अधिक प्रचण्ड ताप से युक्त होता है । मगर होता है सघन अन्धकार से परिपूर्ण, दुस्तर - जिसका कोई ओर-छोर नहीं दिखता, इतना विशाल और बड़ा होने से पार किया जाना कठिन है । ऐसे विशाल लम्बेचौड़े और गहरे नरक में पापी प्राणी जाते हैं, रहते हैं। साथ ही नरक में ऊँची, नीची, तिरछी सभी दिशाओं में व्यवस्थित रूप से लगाई गई आग सतत जलती रहती है । कहीं-कहीं 'समाहिओ' के बदले 'समस्सिओ' पाठ भी है, जिसका अर्थ होता है— जिस नरक में बहुत दूर-दूर तक ऊपर उठी हुई आग की लपटें सतत जलती रहती हैं । ऐसे नरक में बेचारे पापी प्राणी कहाँ सुख-चैन से एक क्षण भी रह सकते हैं ?
मूल पाठ
जंसी गुहाए जलणेऽतिउट्टे, अविजाणओ डज्झइ लुत्तपण्णो । सया य कलणं पुण घम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्मं ॥११॥ संस्कृत छाया यस्मिन् गुहायां ज्वलनेऽतिवृत्तोऽविजानन दह्यते लुप्तप्रज्ञः । सदा च करुणं पुनर्धर्मस्थानं, गाढ़ोपनीतमतिदुः खधर्मम् ॥ १२ ॥
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