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________________ नरकविभक्ति : पंचम अध्ययन-प्रथम उद्देशक ५८७ मूल पाठ जइते सुया वेयरणीभिदुग्गा, णिसिओ जहा खुर इव तिक्खसोया। तरंति ते वेयरणी भिदुग्गां, उसुचोइया सत्तिसु हम्ममाणा ॥८॥ संस्कृत छाया यदि ते श्रु ता वैतरण्यभिदुर्गा निशितो यथाक्षुर इव तीक्ष्णस्रोताः । तरन्ति ते वैतरणीमभिदुर्गामिषु चोदिताः शक्तिसु हन्यमानाः ॥८॥ ___अन्वयार्थ (खुरइव तिक्खसोया णिसिओ) तेज उस्तरे की तरह तीक्ष्णधारा वाली (अभिदुग्गावेयरणी) अत्यन्त दुर्गम वैतरणी नदी का नाम (जइ ते सुया) शायद तुमने सुना होगा । (ते) वे नारकी जीव (अभिदुग्गां वेयरणी) अतिदुर्गम वैतरणी नदी को (तरंति) इस प्रकार पार करते हैं, (उसुचोइया सत्तिसु हम्ममाणा) मानो बाण मारकर प्रेरित किये हुए हों, या भाले से बींधकर चलाए हुए मनुष्य किसी विषम नदी में कद पड़ते हों। भावार्थ उस्तरे के समान तेज धारा वाली अति दुर्गम वैतरणी नदी का नाम शायद तुमने सुना होगा। जैसे बाण (डंडे के अग्रभाग में नोंकदार कील लगाकर उसके द्वारा टोंच मारकर बैल को चलाते हैं, उसे बाण कहते हैं) से और भाले से भेदकर प्रेरित किया हुआ मनुष्य लाचार होकर किसी भयंकर नदी में कूद पड़ता है, इसी तरह सताये या खदेड़े जाते हुए नारकी जीव घबराकर उस नदी में कूद पड़ते हैं। __व्याख्या वैतरणी की तेज धारा में कदने को बाध्य नारक __ इस गाथा में वैतरणी नदी का स्वरूप बताकर उसकी तेज धारा में नारकी जीवों को किस प्रकार कदने और पार करने को बाध्य कर दिया जाता है, यह बताया गया है ? वैतरणी नदी नरक की मुख्य विशाल नदी है । उसमें रक्त के समान खारा और गर्म जल बहता रहता है। उस्तरे के समान उसकी जलधारा बड़ी तेज है । उस धारा के लग जाने से नारकों के अंग कट जाते हैं । नदी बहुत ही गहन एवं दुर्गम है । नारकी जीव जब अत्यन्त गर्म अंगार के समान तपी हुई नरकभूमि को छोड़कर प्यास के मारे अपने ताप को मिटाने के लिए तथा जल में स्नान करने की इच्छा से उस नदी में कूदकर तैरते हैं । कई बार वे इस तरह उस नदी में कूदने को बाध्य कर दिये जाते हैं, जिस तरह बैलों को आरा भोंक कर या भाले से बींधकर चलाया जाता है। कितना दारुण दुःख है, कितनी बिवशता है, नारकों के जीवन में ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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