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________________ ५८८ मूल पाठ कीलेहि विज्भंति असा हुकम्मा, नावं उविते सइविप्पहूणा । अन्न तु सूलाहि तिसूलियाहि दीहाहि विद्वण अहे करंति ॥ ६ ॥ संस्कृत छाया सूत्रकृतांग सूत्र कीलेषु विध्यन्ति असाधुकर्माणः, नावमुपयतः स्मृति विप्रहीनाः । अन्ये तु शूलैस्त्रिशूलं दीर्घं विद्ध, वाऽधः कुर्वन्ति 11211 अन्वयार्थ ( नाव उविते) नौका पर आते हुए नारकी जीवों के ( असा हुकम्मा ) परमाधार्मिक (कोहि विज्झति ) गले में कीलें चुभो देते हैं । ( सइविप्पहूणा ) वे नारक जीव स्मृतिरहित होकर किंकर्तव्यमूढ़ हो जाते हैं । ( अन्ने तु ) तथा दूसरे नरकपाल ( दीहाहिं सूलाहि तिसूलिया हि ) लंबे-लंबे शूलों और त्रिशूलों से ( विद्वण) नारकीय जीवों को बींध कर ( अहे करंति) नीचे जमीन पर पटक देते हैं । भावार्थ वैतरणी नदी के दुःख से उद्विग्न नारक जीव जब किसी नौका पर चढ़ने के लिए आते हैं, तब उस नौका पर पहले से बैठे हुए परमाधार्मिक असुर उन बेचारे नारकों के गले में कीलें चुभो देते हैं । अतः वैतरणी के दुःख से पहले ही स्मृतिहीन बने हुए नारकी जीव इस दुःख से और अधिक स्मृतिहीन हो जाते हैं । वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर अपने शरण का और कोई मार्ग नहीं खोज पाते। कई दुष्ट नरकपाल अपने मनोविनोद के लिए उन नारकों को शूलों और त्रिशूलों से बींधकर नीचे जमीन पर पटक देते हैं । व्याख्या कण्ठ में कीलें चुभाने वाले ये परमाधार्मिक ! जीवों के गले बेचारे नारक वैतरणी नदी के खारे, गर्म तथा बदबूदार पानी से अतितप्त बेचारे नारकी जीव उस नदी में परमाधार्मिकों द्वारा चलाई जा रही काँटेदार नौका पर जब चढ़ने लगते हैं तो उस पर पहले से चढ़े हुए दुष्ट परमाधार्मिक उन नारकी में कीलें चुभो देते हैं । पहले से वैतरणी के दुःख सुधबुध खो हु इस प्रकार कंठ के बींध देने से अत्यन्त स्मृतिरहित हो जाते हैं, वे होश खो बैठते हैं । उन्हें अपने कर्तव्य का विवेक सर्वथा नहीं रहता । कई नरकपाल तो नारकीय जीवों के साथ क्रीड़ा करते हुए उन स्मृतिहीन नारकों को लम्बे-लम्बे शूलों और त्रिशूलों से बींध कर नीचे जमीन पर फेंक देते हैं । कितना दारुण दुःख है, नारक जीवन मेंशारीरिक भी और मानसिक भी ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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