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सूत्रकृतांग सूत्र
मूल पाठ इंगालरासि जलियं सजोति तत्तोवमं भूमिमणुक्कमंता । ते डज्झमाणा कलुणं थणंति, अरहस्सरा तत्थ चिरद्वितीया ॥७॥
संस्कृत छाया अंगारराशि ज्वलितं सज्योतिः तदुपमां भूमिमनुक्रामन्तः । ते दह्यमानाः करुणं स्तनन्ति अरहस्वरास्तत्र चिरस्थितिकाः ।।७।।
. अन्वयार्थ (जलियं) जैसे जलती हुई (इंगालरासि) अंगारों की राशि (सजोति) तथा ज्योतिसहित (तत्तोवमं) भूमि के सदृश (भूमि) जमीन पर (अणुक्कमंता) चलते हुए अतएव (रज्झमाणा) जलते हुए (ते) वे नारकीय जीव (कलुणं थणंति) करुण रुदन करते हैं। (अरहस्सरा) उनकी करुण ध्वनि स्पष्ट मालूम होती है, (तत्थ चिरद्वितीया) ऐसे घोर नरकस्थान में इसी स्थिति में वे चिरकाल तक निवास करते हैं।
भावार्थ जैसे जलती हुई अंगारों की राशि बहुत ही तपी हुई होती है तथा आग के सहित तप्तभूमि बहत गर्म होती है, उसो के समान अत्यन्त तपी हई नरकभूमि पर चलते हुए नरक के जीव मानो चारों ओर से जल रहे हों, इस प्रकार बहुत जोर से करुण क्रन्दन करते हैं। उनका वह क्रन्दन स्पष्टरूप से सुनाई देता है । ऐसी ही स्थिति में वे नारक चिरकाल तक वहाँ रहते हैं।
व्याख्या नरक की तप्तभूमि का स्पर्श कितना दुःखदायी !
यहाँ नरक की भूमि को खैर के धधकते अंगारों की राशि की तथा जाज्वल्यमान अग्नि के सहित पृथ्वी की उपमा दी गई है। इन दोनों प्रकार की भूमियों की सी तपतपाती हुई नरक की भूमि होती है। जिस पर चलते हुए और जलते हुए नारकीय जीव जोर-जोर से रोते-चिल्लाते हैं। शास्त्रकार ने नरकभूमि को बादर अग्नि की उपमा दी है, वह दिग्दर्शनमात्र समझना चाहिए। क्योंकि नरक के ताप की तुलना इस लोक की अग्नि से की नहीं जा सकती। वहाँ का दाह तो इस लोक के दाह से अनेक गुना अधिक है । अतः महानगर के दाह से भी कई गुना अधिक ताप से जलते हुए वे नारक बिलबिलाते हैं, रोते-बिलखते हैं। इस प्रकार की स्थिति में वे जघन्य १० हजार वर्ष तक और उत्कृष्टतः ३३ सागरोपम तक नरक में निवास करते हैं।
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