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________________ मा नरकविभक्ति : पंचम अध्ययन-प्रथम उद्देशक पागभि पाणे बहुणं तिवाति अनिव्वते घातमुवेति बाले। णिहो णिसं गच्छइ अंतकाले, अहोसिरं कटटु उवेइ दुग्गं ।।५।। संस्कृत छाया तीव्र प्रसान् स्थावरान् यो हिनस्ति आत्मसुखं प्रतीत्य । यो लूषको भवत्यदत्तहारी, न शिक्षते सेवनीयस्य किंचित् ।४॥ प्रागल्भी प्राणानां बहनामतिपाती, अनिर्वृतो घातमुपैति बालः । न्यग् निशां गच्छत्यन्तकाले अधः शिरः कृत्वोपैति दुर्गम् ॥५।। अन्वयार्थ . (जे आयसुहंपडच्च) जो जीव अपने विषयसुख के निमित्त (तसे थावरे य पाणिणो तिव्वं हिंसइ) त्रस और स्थावर प्राणियों की तीव्ररूप से हनन (हिंसा) करता है तथा (जे लूसए होइ अदत्तहारी) तथा जो प्राणियों का उपमर्दन करता और दूसरे की चीज को बिना दिये ले लेता है, एवं (सेयवियस्स किचि ण सिक्खइ) जो सेवन करने योग्य संयम का जरा-सा भी सेवन नहीं करता ॥४॥ (पागन्भि) जो पुरुष पापकर्म करने में धृष्ट है, (बहुणं पाणे तिवाति) अनेक प्राणियों का घोत करता है, (अनिव्वते) जिसकी क्रोधाग्नि कभी बुझती नहीं, अर्थात् सदा कषायाग्नि प्रज्वलित रहती है, वह अज्ञानी जीव (अंतकाले) अन्तिम समय में (णिहो णिसं गच्छइ) नीचे घोर अंधकार में चला जाता है (अहोसिरं कटु दुग्गं उवेइ) और नीचे सिर करके कठोर पीड़ास्थान को पाता है ।।५॥ भावार्थ जो जीव अपने वैषयिक सुख के लिए त्रस और स्थावर दोनों प्राणियों का तीव्रता के साथ वध करता है, साथ ही वह प्राणियों का उपमर्दन और दूसरे की चीज को बिना दिये ग्रहण करता है, एवं जो सेवन करने योग्य संयम का जरा-सा भी सेवन नहीं करता है-॥४॥ __ जो जीव प्राणियों की हिसा करने में बड़ा ढीठ है और बेखटके बहतसे प्राणियों की हिंसा करता है, जो सदा क्रोधाग्नि से जलता रहता है। वह अज्ञ जीव नरक को प्राप्त करता है । वह मृत्यु के समय में नीचे अन्धकार में प्रवेश करता है और नीचा सिर करके महापीड़ा स्थान को प्राप्त करता है ॥५॥ व्याख्या हिंसक, चोर आदि पापियों को नरक का दण्ड इन दोनों गाथाओं में नरकयात्रा के पात्रों का निरूपण किया है। शास्त्रकार के अनुसार जो जीव , महामोहनीय कर्म के उदय से अपने इन्द्रिय-सुखों का लोलुप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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