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________________ ५८२ सूत्रकृतांग सूत्र नारकीय जीव अवधिज्ञान से भी दिन में मंद-मंद देख सकता है। इस सम्बन्ध में आगम का प्रमाण प्रस्तुत है "किण्हलेसे णं भंते ! णेरइए किण्हलेस्सं णेरइयं पणिहाए ओहिणा सव्वओ समंता समभिलोएमाणे केवइयं खेत्तं जाणई ? केवइयं खेत्तं पासइ ? गोयमा ! णो बहुययरं खेत्तं जाणइ, णो बहुययरं खेत्तं पासइ, इत्तरिमेवय खेत्तं जाणइ, इत्तरियमेव खेत्तं पासइ।" अर्थात्--"भंते ! कृष्णलेश्या वाला नारकी जीव नारकी जीव को अवधिज्ञान के द्वारा चारों ओर देखता हुआ कितने क्षेत्र तक जानता-देखता है ? गौतम ! वह बहुत क्षेत्र नहीं जानता-देखता, किन्तु थोड़े ही क्षेत्र तक जानतादेखता है।" तथा नरक में इतनी तीव्र दु:सह सन्ताप (गर्मी ---उष्णता) है कि वह खैर के धधकते अंगारों की महाराशि से अनन्तगुना अधिक ताप (गर्मी) से युक्त है। ऐसे घोरतम वेदना वाले नरकों में ऐसे गुरुकर्मी जीव जाते हैं, जो विषयसुखों का त्याग नहीं कर पाते । जिसमें धधकती हुई आग की लपटें मौजूद हैं तथा जो संसारसागर का प्रधान दुःख-स्थान है, ऐसे नरक में वे गिरते हैं। जिस नरक में नारकी जीवों की छाती को परमाधार्मिक पैर से कुचलते हैं, मुह से खून का कुल्ला करके फेंकते हैं, आरे से चीरकर उनके शरीर को दो भागों में विभक्त कर देते हैं। जिस नरक में भेदन किये जाते हुए प्राणियों के कोलाहल से सब दिशाएँ भर जाती हैं तथा चलते हुए नारकों की खोपड़ियाँ और हड्डियाँ चट्चट आवाज करती हैं, पीड़ा के कारण नारक जोर-जोर से चिल्लाकर कराहते हैं। कड़ाहों में डालकर उनके शरीर को भून डाला जाता है, शूल से बींधकर उनका शरीर ऊपर उठाया जाता है। अतः नरक में भयंकर आवाज और भयंकर उत्कट दुर्गन्ध है। नारकों के बंदीगृह में असह्य क्लेश के घर होते हैं, जहाँ घोर यातनाएँ उन्हें दी जाती हैं। कहीं कटे हुए हाथपैरों से खून और चर्बी का दुर्गम प्रवाह बहता है। कहीं निर्दयतापूर्वक नारकों का सिर काटकर धड़ से अलग कर दिया जाता है तो कहीं जलती हई गर्म संडासी के द्वारा नारकों की जीभ खींच ली जाती है, कहीं तीखे नोंकदार काँटों वाले वृक्षों से नारकों का शरीर रगड़ कर जर्जर कर दिया जाता है। इस प्रकार जहाँ पलक झपकने भर को भी सुखशान्ति नही मिलती, अपितु लगातार दुःख, दुःख और दुःख ही चारों ओर मिलता रहता है। ऐसी भयंकर नरकभमियों में वे जाते हैं, जो प्राणिवध करते हैं, मिथ्यावादी हैं, पापकर्मों से लिप्त हैं। मूल पाठ तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिसइ आयसुहं पडुच्चा। जे लूसए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खइ सेयवियस्स किंचि ॥४॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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