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________________ नरकविभक्ति : पंचम अध्ययन-प्रथम उद्देशक ५८१ संस्कृत छाया ये केऽपि बाला इह जीवितार्थिनः पापानि कर्माणि कुर्वन्ति रौद्राः। ते घोररूपे तमिस्रान्धकारे, तीव्राभितापे नरके पतन्ति ॥३॥ __ अन्वयार्थ (इह) इस लोक में (रुद्दा) प्राणियों को भयभीत करने वाले (जे केइ बाला) जो अज्ञानी जीव (जीवियट्ठी) अपने जीवन के लिए (पावाइं कम्माइं करंति) हिंसा आदि पापकर्म करते हैं। (ते) वे (घोररूवे) घोर रूप वाले (तमिसंधयारे) घोर अन्धकार से युक्त (तिव्वाभितावे) तीव्रतम ताप-गर्मी वाले (नरए) नरक में (पडंति) गिरते हैं। भावार्थ इहलोक में प्राणियों को भयभीत करने वाले अज्ञानी जीव अपने जीवन की खुशहाली के लिए दूसरे प्राणियों की हिंसा आदि पापकर्म करते हैं। वे घोर विकराल रूप वाले, घोर अंधेरे से युक्त तथा अत्यन्त तीव्र ताप-गर्मी वाले नरक में गिरते हैं। व्याख्या कौन, क्यों और कैसे नरक में जाते हैं ? इस गाथा में यह बताया गया है कि नरकयात्रा कौन करते हैं, क्यों करते हैं और कैसे नरक में जाते हैं ? जो व्यक्ति स्वयं रौद्र हैं, कर्म से भी रौद्र --- भयंकर हैं, भावों से भी रौद्र हैं, विचारों से भी भयंकर हैं और वचन से भी रौद्र हैं। जो बाल हैं-हित में प्रवृत्ति एवं अहित में निवृत्ति के विवेक से रहित अज्ञानी हैं। राग-द्वेष की उत्कटता के कारण जो आत्महित से अज्ञ तिर्यंच एवं मनुष्य हैं। अथवा जो सिद्धान्त से अनभिज्ञ होने के कारण महारम्भ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रिय जीवों के प्राणघात एवं मांसभक्षण आदि सावद्य अनुष्ठान में प्रवृत्त हैं, वे बाल हैं। ऐसे रौद्र एवं अज्ञानी जीव नरक में क्यों जाते हैं ? इसके लिए शास्त्रकार दो शब्द देते हैं—'जीवियट्ठी' एवं 'पावाइं कम्माइं करंति' अर्थात् – सुख से जीवनयापन करने के लिए पापोपादानरूप कर्म करते हैं, भयंकर हिंसा, आदि पापकर्म करते हैं। इसी कारण वे नरक में जाते हैं। पापकर्म से युक्त व्यक्ति किस प्रकार के नरक में जाता है, इसके लिए शास्त्रकार ने नरक के घोररूप, तमिसान्धकार, और तीव्राभिताप, इन तीन विशेषणों का प्रयोग किया है । वहाँ विकराल दृश्य हैं, इसलिए नरक को घोररूप कहा है। नरक में इतना घोर अन्धकार है कि जहाँ हाथ को हाथ भी नहीं सूझता, अपने नेत्र से अपना शरीर भी नहीं दिखाई देता । जैसे उल्लू दिन में बहुत कम देखता है, वैसे ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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