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________________ ५८० सूत्रकृतांग सूत्रं द्वारा जिज्ञासा प्रगट करने पर अतिशयमाहात्म्यसम्पन्न, सब वस्तुओं में सदा शीघ्र उपयोग रखने वाले, काश्यपगोत्र में उत्पन्न श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कहा कि नरकस्थान अत्यन्त दुःखदायक और असर्वज्ञ (छद्मस्थ) जीवों द्वारा अज्ञय हैं। वे पापी और दीन जीवों के निवासस्थान हैं; यह मैं आगे चलकर बताऊँगा। व्याख्या नरक के सम्बन्ध में भगवान महावीर का संक्षिप्त उत्तर इस गाथा में नरक के सम्बन्ध में सुधर्मास्वामी द्वारा किये गये प्रश्न का भगवान महावीर द्वारा दिया गया संक्षिप्त उत्तर बताया गया है । सर्वप्रथम सुधर्मास्वामी ने भगवान् महावीर के लिए 'महाणुभावे', 'कासवे, 'आसुपन्ने' इन तीन विशेषणों का प्रयोग किया है। महानुभाव का अर्थ है—चौंतीस अतिशय तथा ३५ प्रकार की वाणी के माहात्म्य से सम्पन्न । काश्यप का अर्थ हैकाश्यपगोत्रोत्पन्न । यह विशेषण खास वर्द्ध मानस्वामी के लिए प्रयुक्त हुआ है। 'आशुप्रज्ञ' का अर्थ है--सदा सर्वत्र उपयोग रखने वाले । ___ शास्त्रकार का कहने का आशय यह है कि इन विशेषणों से युक्त भगवान् महावीर स्वामी ने नरक के सम्बन्ध में संक्षिप्त उत्तर यों दिया - नरकमि दुःख का कारण है, या बुरे कर्मों का फल होने के कारण दुःखरूप है, अथवा नरकस्थान जीवों को दुःख देता है, इसलिए दुःखदायी है या असातावेदनीय कर्म के उदय से होने से नरकभूमि तीव्रपीड़ारूप है, इसलिए यह दुःखमय है। यहाँ 'दुहमट्ठदुग्गं' पाठ है, उसका अर्थ है-नरकभूमि केवल दुःख देने के लिए ही बनी है, इसलिए दुःखार्थ है, दु:खनिमित्त है, या दुःखप्रयोजन है। दूसरा विशेषण है---दुर्ग । नरकभूमि को पार करना कठिन है, इसलिए दुर्ग है। अथवा असर्वज्ञों द्वारा वह दुविज्ञ य है, क्योंकि नरक को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है । नरकभूमि की विशेषता बताते हुए दो विशेषणों का प्रयोग किया है --आदीणियं, दुक्कडियं । वह अत्यन्त दीन प्राणियों का निवासस्थान है, जिसमें चारों ओर दीनजीव निवास करते हैं, इसलिए नरकभूमि आदीनिक है। तथा नरकभूमि में बुराकर्म, पाप या पाप का फल असातावेदनीय विद्यमान रहता है, इसलिए इसे दुष्कृतिक कहा है। यहाँ 'दुक्कडिणं' पाठान्तर भी है। जिसका अर्थ है -नरकनिवासी पापीजनों ने नरक भोगने योग्य जो पूर्वजन्म में कर्म किये हैं, वे दुष्कृती हैं। मूल पाठ जे केइ बाला इह जीवियट्ठी, पावाई कम्माइं करंति रुद्दा । ते घोररूवे तमिसंधयारे तिव्वाभितावे नरए पडंति ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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