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नरकविभक्ति : पंचम अध्ययन-प्रथम उद्देशक
५७६ महर्षि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से बहुत पहले पूछा था कि नरक कैसे. पीड़ाकारक हैं ? मुनिशिरोमणि प्रभो ! मैं इसे नहीं जानता, किन्तु आप इसे जानते हैं। अतः आप मुझे यह बतलाइए, और यह भी कहिए कि अज्ञानी मूढ़ जीव किस कारण से नरक में जाते हैं।
व्याख्या
नरक के सम्बन्ध में जिज्ञासा गणधर सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी आदि अपने शिष्यों से अपना अनुभव सुनाते हुए एक दिन कहा था कि बहुत अर्सा हुआ, जब एक दिन मैंने श्रमणशिरोमणि भगवान् महावीर के समक्ष अपनी जिज्ञासा प्रगट की थी-“भगवन् ! मैं नरक और वहाँ होने वाले तीव्र सन्तापों से बिलकुल अनभिज्ञ हूँ। आप सर्वज्ञ हैं। आपसे त्रिकाल, त्रिलोक की कोई भी बात छिपी नहीं है। आप अनुकल-प्रतिकूल अनेक उपसर्गों को सहने के अनेक अनुभवों में से गुजरे हैं। समस्त जीवों की क्रियाप्रतिक्रिया, वृत्ति-प्रवृत्ति को आप भलीभाँति जानते हैं। अत: आप यह बताने की कृपा करें कि नरकभूमियाँ कैसे-कैसे दुःखों से भरी हैं ? वहाँ के लोग इतने दुःखी क्यों हैं ? वे इन दुःखों के समय क्या करते होंगे ? और वे हिताहित-विवेकमूढ़ जीव किन-किन कारणों से नरक को प्राप्त करते हैं ?" यही इस गाथा का आशय है।
मूल पाठ एवं मए पुठे महाणुभावे, इणमोऽब्बवी कासवे आसुपन्ने पवेदइस्सं दुहमठ्ठदुग्गं, आदीणियं दुक्कडियं पुरत्था ॥२॥
___ संस्कृत छाया एवं मया पृष्टो महानुभाव, इदमब्रवीत् काश्यप आशुप्रज्ञः । प्रवेदयिष्यामि दुःखमर्थदुर्गमादीनिकं दुष्कृतिकं पुरस्तात् ॥२॥
अन्वयार्थ (एवं) इस प्रकार (मए) मेरे द्वारा (पुट्ठ) पूछे जाने पर (महाणुभावे कासवे आसुपन्ने) महाप्रभावक काश्यपगोत्रीय समस्त पदार्थों में सदा शीघ्र उपयोग रखने वाले भगवान् महावीर स्वामी ने (इणमोऽब्बवी) यह कहा कि (दुहमठ्ठदुग्ग) नरक दुःखदायी है, तथा असर्वज्ञ पुरुषों से अज्ञेय हैं, (आदीणियं) वह अत्यन्त दीन जीवों का निवासस्थान है, (दुक्कडियं) उसमें पापी (दुष्कर्म करने वाले) जीव रहते हैं । (पुरत्था पवेदइस्स) यह आगे चलकर हम बतायेंगे।
भावार्थ • श्रीसुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी आदि से फरमाते हैं- इस प्रकार मेरे
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