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प्रथम श्रुतस्कन्ध : उपोद्घात
पर सम्बन्ध, (२) उसका प्रतिपाद्य विषय, (३) उसकी सुगमता से प्राप्ति, (४) आप्त द्वारा उसकी रचना और (५) इष्ट प्रयोजन ।
(१) जिस शास्त्र में पूर्वापर सम्बन्ध नहीं होता, वह उन्मत्त वचन की तरह आदरणीय नहीं होता। प्रस्तुत शास्त्र सूत्रकृतांग में पूर्वापरसम्बद्ध वचन हैं। प्रथम अध्ययन की पहली गाथा में जिज्ञासु शिष्य का प्रश्न है---'किमाह बंधणं वीरो ?' उसी के सन्दर्भ में बंधनों के कारण और निवारण के उपाय के सम्बन्ध में अन्त तक विभिन्न पहलुओं से कहा गया है। (२) जिस शास्त्र में वास्तविक वस्तु का वर्णन न होकर 'आकाश के फूलों का सेहरा बाँधकर वन्ध्यापुत्र विवाह करने जा रहा है। इत्यादि वाक्यों की तरह ऊटपटांग बातें लिखी गई हों, अथवा जिस शास्त्र में जीवन की वास्तविक समस्या को हल करने वाली बातें न हों, वह शास्त्र भी उपादेय नहीं होता। जैसे चैदिक ग्रन्थों में यह विधान 'न स्त्रीशूद्रौ वेदमधीयेयाताम् ।' “स्त्री और शूद्र को वेद का अध्ययन नहीं करना चाहिए।" अगर वेद धर्मशास्त्र है, जीवन को उन्नति-पथ पर ले जाने वाला है, तो स्त्री-शूद्र के लिये उसके अध्ययन का निषेध क्यों ? किन्तु सूत्रकृतांगसूत्र में समस्त प्रतिपाद्य विषय वारतविक तथ्य से, कर्मबंधन से मुक्ति की समस्या से सम्बन्धित है। (३) इसी तरह जिस शास्त्र में प्रतिपादित विषय या दोपनिवारणोपाय सर्वसुलभ या बोधगम्य न होकर 'तक्षकसर्प के मस्तक में स्थित मणि का आभूषण बनाकर पहनने से सब प्रकार के ज्वर नष्ट हो जाते हैं' के समान दुर्गम एवं दुरूह उपाय बताये गये हों, उन्हें भी राज्जन लोग नहीं अपनाते । प्रस्तुत शास्त्र में प्रतिपादित वर्णन अनुभवयुक्त, सुलभ और सर्वजनना ह्य है। इन्हें पढ़-सुन कर प्रत्येक व्यक्ति आसानी से हृदयंगम कर सकता है और बंधन-निवारण कर सकता है। (४) तथा जो शास्त्र वीतराग, निःस्वार्थ, हितोपदेशक, लोकोत्तर आप्तपुरुषों द्वारा रचित नहीं होता, वह भी, जैसे कोई रास्ता चलता मनचला किन्हीं बालकों से यह कहे कि 'दोड़ो-दौड़ो, बालको, इस पीपल में देवता रहते हैं, वे सोना दे देंगे' इत्यादि वाक्यों की तरह विश्वसनीय नहीं होता। यह तो पहले ही बताया जा चुका है कि वह शास्त्र अर्थरूप में अर्हत्कथित तथा सूत्ररूप में गणधर-रचित है, इसलिये इसमें प्रतिपादित विषय अविश्वसनीय नहीं है। (५) इसी प्रकार 'पुत्रोत्पत्ति के लिये माता के साथ विवाह करो' या 'सुखवृद्धि के लिये दूसरों को लटो-खसोटो' इत्यादि वचनों की तरह अनिष्ट प्रयोजन वाले शास्त्र (प्रवचन) सत्पुरुषों द्वारा अग्राह्य होते हैं। इस शास्त्र में 'बुज्झिज्जत्ति' इत्यादि पदों द्वारा बंधनों एवं उनके कारणों को मिटाकर मोक्ष-प्राप्ति-रूप इष्ट प्रयोजन सूचित किया गया है। इसलिए यह शास्त्र पाँचों निमित्तों की दृष्टि से उपादेय है ।
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