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सूत्रकृतांग सूत्र
जिज्ञासु साधक को ले जाने वाला है, वह निःसन्देह उपादेय है । फिर भी सर्व साधारण जिज्ञासुओं और साधकों तथा पाठकों और श्रोताओं के लिये इस शास्त्र की सार्वभौम उपादेयता के लिये प्रत्येक शास्त्र के प्रारम्भ में चार प्रकार का अनुबन्ध बताना आवश्यक होता है ।
किसी भी शास्त्र के अध्ययन-अध्यापन या श्रवण-मनन में प्रवृत्ति तभी होती है, जब उसको उसमें प्ररूपित विषय, उसके प्रयोजन, अधिकारी और सम्बन्ध का अच्छी तरह ज्ञान हो । अर्थात् शास्त्र में प्रवृत्ति करने की प्रेरणा देने वाला ज्ञान अनुबंध कहलाता है । वह चार प्रकार का है-विषय, अधिकारी, सम्बन्ध और प्रयोजन |
इस शास्त्र में किन-किन विषयों का वर्णन है, यह पहले बताया जा चुका है । इस सूत्र के पठन-पाठन या श्रवण-मनन के अधिकारी श्रमण श्रमणी एवं श्रद्धालु श्रोता हैं । जो व्यक्ति अहर्निश सांसारिक लुभावनी मोहमाया के भँवरजाल में ही फँसा रहता है तथा रात-दिन महारंभ एवं महापरिग्रह में रचा-पचा रहता है, वह इस शास्त्र के पठन-श्रवण का अधिकारी नहीं हो सकता । बल्कि यों कहना चाहिए कि ऐसे महारंभी, महापरिग्रही एवं बन्धनों में चारों ओर से जकड़े हुए व्यक्ति को शास्त्र के श्रवण, मनन एवं पठन की जिज्ञासा या इच्छा भी नहीं होती । इस सूत्र के साथ हमारा प्रेर्य-प्रेरकभाव सम्बन्ध है । यह शास्त्र प्रेरक है, यानी आत्मा को जकड़ कर पराधीन बनाने वाले कर्मबंधनों एवं उनके कारणों से दूर रखने और उन बंधनों से दूर रहकर मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देता है, और जिस व्यक्ति को प्रेरणा दी जाती है, वह जिज्ञासु या मुमुक्षु प्रेर्य है अथवा उपायोपेयभाव सम्बन्ध है । यह शास्त्र बन्धनों से निवृत्ति और मुक्ति में प्रवृत्ति का उपाय बताता है और जिसे उपाय बताता है या जो उपाय को ग्रहण करता है, वह उपेय कहलाता है । इस शास्त्र का मुख्य प्रयोजन जीवों को अपनी अज्ञानता के कारण आत्मस्वरूप को भूले हुए जीवों को बोध प्राप्त करने की प्रेरणा देना, बन्धनों और बन्धनों के कारणों का बोध देकर उनसे मुक्त होने के पुरुषार्थ में प्रवृत्त करना है । सारांश यह है कि संसारी जीव बंधनों को हेय समझकर उपादेयरूप संवर, निर्जरा और मोक्ष प्रवृत्ति करें, यही इस शास्त्र की रचना का मुख्य प्रयोजन है ।
शास्त्र की उपादेयता के पाँच निमित्त
किसी भी शास्त्र या ग्रन्थ की उपादेयता के ५ निमित्त होते हैं - ( १ ) पूर्वा
१. दो ठाणे अपरियणित्ता आया णो केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए-तं जहा- आरंभे चैव परिग्गहे चेव ।
- स्थानांगसूत्र
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