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सूत्रकृतांग सूत्र
'महारंभेण, महापरिग्गहेण पंचिदियवहेणं कुणिमाहारेणं ।'
अर्थात्-- चार कारणों से जीव नरकगति का बन्ध करता है -महारम्भ से, महापरिग्रह से, पंचेन्द्रिय जीवों के वध से एवं मांसाहार से ।।
नरक का संक्षेप में परिचय इस प्रकार है ---नरक का पर्यायवाची निरय शब्द है-निर्गतमविद्यमानमयमिष्टफलं दैवं कर्म सातवेदनीयाऽऽदिरूपं येभ्यस्ते निरयाः, निर्गतमयंशुभमस्मादिति निरयः । अथवा नरान् कायन्ति शब्दयन्ति योग्यताया अनतिक्रमेणाऽऽकारयन्ति जन्तून् स्वस्वस्थाने इति नरकाः । अर्थात् – सातावेदनीयादिरूप इष्टफल या शुभ जिनमें से निकल गये हैं, उन्हें निरय कहते हैं । अथवा प्राणियों को अपने-अपने स्थान में दुर्लध्यरूप से दूर से ही बुला लेते हैं, अथवा जहाँ वेदना के मारे जीव एक-दूसरे को सम्बोधन करके सहायता के लिए बुलाते हैं, वह नरक है।
नरक सात हैं- रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूम्रप्रभा, तमःप्रभा, महातमःप्रभा। इनके क्रमश: ७ रूढ़िगत नाम हैं -- धम्मा, वंशा, शैला, अंजना, अरिष्टा, मघा और माधवी । ये सात नरकभू मियाँ हैं, जो एक दूसरी के नीचे घनोदधि (घनाम्बु), घनवात, तनुवात और आकाश के आधार पर स्थित हैं। ये आपस में सटकर नहीं हैं। एक दूसरी भूमि के बीच में असंख्य योजनों का अन्तर है। उन नरकभूमियों में केवल ५ महालय नरक हैं, वे क्रमशः ३० लाख, २५ लाख, १५ लाख, १० लाख, ३ लाख, पाँच कम एक लाख और ५ आवासों में विभक्त हैं । ये सब भूमि के अन्दर हैं और अनेक पटलों में बँटे हुए हैं। प्रथम भूमि में १३ पटल हैं, आगे की भूमियों में क्रमशः दो-दो पटल कम होते गये हैं। सातवीं भूमि में केवल केवल एक पटल है। रत्नप्रभा १ लाख ८० हजार योजन, शर्कराप्रभा ३२ हजार योजन, बालुकाप्रभा २८ हजार योजन, पंकप्रभा २४ हजार योजन, धूम्रप्रभा २० हजार योजन, तमःप्रभा १६ हजार योजन और महातमःप्रभा ८ हजार योजन मोटी हैं।
उन नरकों में रहने वाले जीवों की उत्कृष्ट स्थिति क्रमश: एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाइस और तैतीस सागरोपमकाल की है। वे नरक के प्राणी निरन्तर अशुभतर लेश्या, दुष्परिणाम, बुरे, बेडौल, भौंडे, भद्दे, कुरूप शरीर, असह्यतर वेदना और विक्रिया वाले होते हैं । वे एक दूसरे के लिए परस्पर दुःख उत्पन्न करते हैं। चौथी नरकभूमि से पहले-पहले यानी तीन नरकभूमियों तक संक्लिष्ट परिणामी असुर (परमाधार्मिक) दुःख उत्पन्न करते हैं, पीड़ा देते हैं । नारक लोग प्रायः एक दूसरे के
१. तत्त्वार्थसूत्र में नरक के दो कारण बताये गये हैं-"बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च
नारकस्यायुषः ।" महारम्भ और महापरिग्रह ये दो नरकायुबन्ध के कारण हैं। -देखो तत्त्वार्थ सूत्र अ० ३ में ।
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