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नरकविभक्ति : पंचम अध्ययन-प्रथम उद्देशक
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साथ हए वैर का स्मरण करके परस्पर कुत्तों की तरह लड़ते हैं । पूर्वजन्म का स्मरण करके उनकी यह वैर की गाँठ और सुदृढ़ हो जाती है, जिससे वे अपनी विक्रिया से तलवार, भाला, वसूला, फरसा आदि शस्त्र बनाकर उनसे तथा अपने हाथ, पैर, दाँतों और नखों से छेदन-भेदन, तक्षण और कर्तन आदि के द्वारा परस्पर अति-तीव्र दुःसह दुःख उत्पन्न करते हैं।
यह परस्परकृत दुःख है। क्षेत्रजन्य दुःख का भी वहाँ कोई पार नहीं है। नरकभूमियों में उत्तरोत्तर असह्य भयंकर रूप, डरावनी आकृति, असह्य दुर्गन्ध, असह्य कटु और तिक्त रस, दुःसह भयंकर चीत्कार, आर्तध्यान से पीड़ित नारकों के शब्द और दुःसहशीत उष्ण आदि स्पर्श हैं । इन सबका दुःख भी कम नहीं है।
इन दो प्रकार के दु:खों के अतिरिक्त उन्हें एक तीसरे प्रकार का दुःख और होता है, जो असुर जाति के १५ प्रकार के परमाधार्मिक असुरों द्वारा उत्पन्न किया जाता है ।' यद्यपि यह दुःख प्रारम्भ की तीन नरक-भूमियों तक ही है। ये असुर स्वभाव से ही निर्दयी होते हैं। अनेक सुख-साधनों के रहते हुए भी इन्हें नारकियों को लड़ाने में आनन्द आता है। नारकियों को अपने संकेत पर पूर्ववैर स्मरण करके परस्पर लड़ते-मरते देख इन्हें बड़ी प्रसन्नता होती है। इस प्रकार मार-काट में एवं उससे उत्पन्न हुए दुःखों के सहने में ही नारकों की जिंदगी बीतती है। ये इस दौरान कोई भी शुभ कार्य नहीं कर सकते। शुभ कार्य करने की भावना ही इनके चित्त में अशुभतर लेश्याओं के कारण पैदा नहीं होती। आयुष्य का पूरा भोग किये बिना बीच में वे दु:खों से कदापि छुटकारा नहीं पा सकते, क्योंकि उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती।
प्रथम तीन नरकों में पन्द्रह प्रकार के परमाधार्मिक नरकपाल किस प्रकार से वहाँ के नारकीय जीवों को दुःख और वेदना उत्पन्न करते हैं ? यह नियुक्तिकार के शब्दों में पढ़िये
अम्ब नामक प्रथम नरकपाल परमाधार्मिक अपने भवनों से नरकावासों में जाते हैं और वहाँ के शरणरहित नारकीय जीवों को कुत्ते की तरह शूल आदि के प्रहार से पीड़ित करते हुए एक जगह से दूसरी जगह क्रीड़ापूर्वक उछालते हैं । उन बेचारे अनाथ जीवों को इधर से उधर घुमाते हैं । तथा उन्हें आकाश में फैकते हैं, जब वे नीचे चिरने लगते हैं तो उन्हें मुद्गर आदि के द्वारा मारते-पीटते हैं, शूल १. १५ परमाधामिक देवों के नाम इस प्रकार हैं -
अंबे अंबरिसी चेव सामे य सबलेवि य । रोद्दोवरुद्द काले य, महाकालेत्ति आवरे ॥ असिपत्ते धणु कुंभे, वालु वेयरणी वि य । खरस्सरे महाघोसे, एवं पण्णरसाहिया ॥
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