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________________ नरकविभक्ति : पंचम अध्ययन–प्रथम उद्देशक करके अनापशनाप परिग्रह रखा है, उसे उन-उन कुकृत्यों का दण्ड यदि न मिले तो जगत् में अव्यवस्था उत्पन्न हो जाएगी। अत: जगत् की सुव्यवस्था के लिए पुण्य और पाप का फल भोगने हेतु स्वर्ग (देवगति) और नरक (नरकगति) मानना अनिवार्य है। यदि ये दोनों गतियाँ न मानी जाएँगी तो कोई भी व्यक्ति शुभकार्यपुण्यकार्य करने के लिए प्रोत्साहित नहीं होगा। सभी बेखटके पापकर्म में प्रवृत्त होंगे । किसी को कोई न तो पाप करने से टोक सकेगा और न ही कोई रोक सकेगा। इसलिए स्वर्ग और नरक की व्यवस्था मानना अनिवार्य है। निक्षेप की दृष्टि से नरक के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से ६ भेद हैं। नाम नरक और स्थापना नरक सुगम हैं। द्रव्यनरक आगमतः और नोआगमत: होने के कारण दो प्रकार का है। आगम द्रव्यनरक वह है, जो पुरुष नरक को जानता है, किन्तु उसमें उपयोग नहीं रखता। नोआगम से द्रव्यनरक वह है, जो ज्ञशरीर और भव्यशरीर से अतिरिक्त इसी लोक में मनुष्यभव या तिर्यञ्चभव में अशुभकर्म करने के कारण जो प्राणी अशुभ हैं, जैसे कालसौकरिक (कसाई) आदि । ये सब द्रव्यनरक कहलाते हैं। अथवा जेल, बन्दीगृह आदि जो बुरे स्थान हैं, जहाँ रहकर जीव अत्यन्त कष्ट पाता है, अथवा जहाँ नरक की-सी वेदनाएँ मिलती हैं, वे सब द्रव्यनरक हैं। अथवा कर्मद्रव्य और नोकर्मद्रव्य के भेद से द्रव्यनरक दो प्रकार का है। उनमें जो नरकवेदनीय कर्म बाँधे जा चुके हैं, वे एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र की दृष्टि से द्रव्यनरक हैं। नोकर्मद्रव्य की दृष्टि से द्रव्यनरक तो इसी लोक में अशुभ रूप, रस, गन्ध और शब्द हैं । क्षेत्रनरक नरकों का स्थान है, जो ८४ लाख संख्या वाले काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान नामक नरकों का विशिष्ट भूभाग है। कालनरक वहाँ है, जहाँ जिस नरक की जितनी स्थिति है। जो जीव नरक की आयु भोगते हैं, वे भावनरक हैं । तथा नरक के योग्य कर्म के उदय को भी भावनरक कहते हैं। अर्थात् नरक में स्थित जीव और नरकायु के उदय से उत्पन्न असातावेदनीय आदि कर्म के उदय वाले जीव, ये दोनों ही 'भावनरक' कहे जा सकते हैं। नरकविभक्ति नामक अध्ययन की रचना करके नरक एवं नरक में दिये जाने वाले भयंकर दु:खों का वर्णन शास्त्रकार ने इसलिए किया है कि शास्त्र के प्रारम्भ में बन्धन को जानकर उसका त्याग करने पर जोर दिया है। इसलिए नरकायु के कर्मबन्धन को तथा उक्त कर्मबन्धन से होने वाले कर्मविपाक (कर्म फल) को जानना साधक के लिए अत्यावश्यक है, ताकि वह नरक के दारुण दुःखों को सुन-समझकर नरकगति की कारणभूत निम्नोक्त बातों से दूर रहे और स्वपरकल्याणरूप संयम साधना में अहर्निश संलग्न रहे। स्थानांग सूत्र में नरकगति के चार कारण बताये गये हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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