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________________ पंचम अध्ययन : नरकविभक्ति अध्ययन का संक्षिप्त परिचय ___ चतुर्थ अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी है। अब पंचम अध्ययन प्रारम्भ किया जा रहा है। इसका पूर्वापर सम्बन्ध इस प्रकार है-प्रथम अध्ययन में स्वसमय-परसमय-प्ररूपणा की गयी है। इसके पश्चात् स्वसमय में बोध प्राप्त करना चाहिए, यह दूसरे अध्ययन में कहा है। सम्यक् प्रकार से बोध पाये हुए पुरुष को अनुकूल-प्रतिकल उपसर्गों को भलीभाँति सहन करना चाहिए, यह तृतीय अध्ययन में बताया गया है। इसके पश्चात् चतुर्थ अध्ययन में यह बताया गया है कि बोधप्राप्त साधक को स्त्रीपरीषह भी अच्छी तरह सहन करना चाहिए। अब पाँचवें अध्ययन में यह बताया जायेगा कि जो साधक उपसर्गों एवं परीषहों से भय खाता है तथा स्त्री के वश में हो जाता है, वह अवश्य नरक में जाता है। वहाँ कैसी-कैसी भयंकर वेदनाएँ होती हैं, किस-किस प्रकार से जीवों को पीड़ा पहुँचायी जाती है और उनकी प्रतिक्रिया नारकीय जीवों पर कैसी-कैसी होती है ? इसलिए इस अध्ययन का नाम नरकविभक्ति रखा गया है। यह इस अध्ययन का अर्थाधिकार है, जिसमें नरक के घोर दुःखों का वर्णन है। उपक्रम के सन्दर्भ में यहाँ अर्थाधिकार दो प्रकार का हैअध्ययनार्थाधिकार और उद्देशार्थाधिकार । इस अध्ययन का अर्थाधिकार अभी-अभी हम बता चुके हैं । इस अध्ययन के दो उद्देशक हैं। दोनों उद्देशकों में नरक के दु:खों तथा नरकपालों द्वारा दी जाने वाली भयंकर यातनाओं का हृदयस्पर्शी वर्णन है। नरक : क्या, क्यों और कैसे ? इस संसार में प्रत्येक जीव अपने-अपने शुभाशुभ कर्मानुसार सुख या दुःख पाता है, साथ ही सुखों और दुःखों को भोगने के लिए कोई न कोई गति, योनि या वातावरण अवश्य प्राप्त करता है। ईश्वर कर्तृत्ववादियों के अनुसार सोचें तो ईश्वर भी प्रत्येक जीव के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार ही उसे विभिन्न गति, या योनि में पहुँचाता या प्राप्त कराता है। इसमें किसी भी प्रकार की रियायत नहीं होती, न रिश्वत चल सकती है। अतः जब अच्छे या बुरे कर्मों का फल अवश्य मिलेगा, यह निश्चित है, तब जिन लोगों ने अच्छे कर्म किये हैं, उन्हें तो उनके शुभकर्मानुसार स्वर्ग (देवगति) या मनुष्यलोक में स्थान मिल जाता है। परन्तु जिन लोगों ने जिन्दगीभर झूठ बोला है, चोरियां की हैं, हत्याएँ और कत्लें की हैं, कुशीलसेवन किया है, ममत्व ५७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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