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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन - द्वितीय उद्देशक
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करते हुए शस्त्रकार स्त्री- संसर्ग ही नहीं, स्त्री- पशु - स्पर्श से भी संयमी साधु को बचने का निर्देश करते हैं—णो इस्थिपाणिणा णिलिज्जेज्जा ।
आशय यह है कि पूर्वोक्त कथनानुसार स्त्रियों की प्रार्थना तथा उनके साथ परिचय भय का कारण है, इसलिए कहा है – एयं भयं । साथ ही यह भी कहा है कि स्त्रीसम्पर्क अशुभ-अनुष्ठान का कारण है, इसलिए वह श्रेयस्कर नहीं है । इन सब बातों को भली-भाँति हृदयंगम करके संयमी साधु स्त्री- संसर्ग से अपने को रोक कर उत्तम मार्ग में स्वयं को स्थापित करे । स्त्री तथा पशु के साथ संवास-संवसति नरक ले जाने का कारण है । इसीलिए शास्त्र में साधु की शय्या स्त्री, पशु और नपुंसकवजित होने का विधान है । इसी कारण स्त्री- पशु का संस्पर्श भी यहाँ वर्जित बताया है ।
णो सयं पाणिणा णिलिज्जेज्जा - इसका एक अर्थ यह भी है कि अपने हाथ से अपनी गुप्तेन्द्रिय का पीड़न न करे, क्योंकि ऐसा करने से भी चारित्र बिगड़ जाता है । कामोत्तेजना साधक के लिए महामोहकर्मबन्ध - पापकर्मबन्ध का कारण है, इसलिए इसके जो भी निमित्त हैं, उनका त्याग साधु के लिए अनिवार्य है ।
मूल पाठ सुविसुद्धलेसे मेहावी, परकिरियं च वज्जए नाणी ।
मणसा वयसा काएणं सव्वफाससहे अणगारे ||२१||
,
संस्कृत छाया
सुविशुद्धलेश्य: मेधावी, परक्रियाञ्च वर्जयेद् ज्ञानी ।
मनसा
वचसा कायेन सर्वस्पर्श सहोऽनगारः ॥ २१ ॥ अन्वयार्थ
( सुविसुद्धले से ) विशुद्ध लेश्या ( चित्तवृत्ति) वाला ( मेहावी नाणी) मर्यादा में स्थित ज्ञानी पुरुष (मणसा वयसा काएणं) मन, वचन और काया से ( परकिरियं च वज्ज) आत्महित में बाधक -- परभाव या दूसरे की क्रिया को वर्जित करे । क्योंकि ( सव्व फासस हे अणगारे ) जो शीत, उष्ण आदि समस्त स्पर्शो को सहन करता है, वही साधु - अनगार है ।
भावार्थ
विशुद्ध लेश्या - चित्त की परिणति वाला साधु - मर्यादा में स्थित ज्ञानी साधक मन, वचन एवं काया से आत्मभावों से पर अनात्मभावों की या विषयोपभोग द्वारा तथाकथित परोपकार क्रिया का त्याग करे । वास्तव में अनगार वही है जो स्त्री - स्पर्श परीषह या शीत, उष्ण, दंश, मशक, तृण आदि के समस्त स्पर्शो को समभाव से सहता है ।
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