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________________ स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन - द्वितीय उद्देशक ५६६ करते हुए शस्त्रकार स्त्री- संसर्ग ही नहीं, स्त्री- पशु - स्पर्श से भी संयमी साधु को बचने का निर्देश करते हैं—णो इस्थिपाणिणा णिलिज्जेज्जा । आशय यह है कि पूर्वोक्त कथनानुसार स्त्रियों की प्रार्थना तथा उनके साथ परिचय भय का कारण है, इसलिए कहा है – एयं भयं । साथ ही यह भी कहा है कि स्त्रीसम्पर्क अशुभ-अनुष्ठान का कारण है, इसलिए वह श्रेयस्कर नहीं है । इन सब बातों को भली-भाँति हृदयंगम करके संयमी साधु स्त्री- संसर्ग से अपने को रोक कर उत्तम मार्ग में स्वयं को स्थापित करे । स्त्री तथा पशु के साथ संवास-संवसति नरक ले जाने का कारण है । इसीलिए शास्त्र में साधु की शय्या स्त्री, पशु और नपुंसकवजित होने का विधान है । इसी कारण स्त्री- पशु का संस्पर्श भी यहाँ वर्जित बताया है । णो सयं पाणिणा णिलिज्जेज्जा - इसका एक अर्थ यह भी है कि अपने हाथ से अपनी गुप्तेन्द्रिय का पीड़न न करे, क्योंकि ऐसा करने से भी चारित्र बिगड़ जाता है । कामोत्तेजना साधक के लिए महामोहकर्मबन्ध - पापकर्मबन्ध का कारण है, इसलिए इसके जो भी निमित्त हैं, उनका त्याग साधु के लिए अनिवार्य है । मूल पाठ सुविसुद्धलेसे मेहावी, परकिरियं च वज्जए नाणी । मणसा वयसा काएणं सव्वफाससहे अणगारे ||२१|| , संस्कृत छाया सुविशुद्धलेश्य: मेधावी, परक्रियाञ्च वर्जयेद् ज्ञानी । मनसा वचसा कायेन सर्वस्पर्श सहोऽनगारः ॥ २१ ॥ अन्वयार्थ ( सुविसुद्धले से ) विशुद्ध लेश्या ( चित्तवृत्ति) वाला ( मेहावी नाणी) मर्यादा में स्थित ज्ञानी पुरुष (मणसा वयसा काएणं) मन, वचन और काया से ( परकिरियं च वज्ज) आत्महित में बाधक -- परभाव या दूसरे की क्रिया को वर्जित करे । क्योंकि ( सव्व फासस हे अणगारे ) जो शीत, उष्ण आदि समस्त स्पर्शो को सहन करता है, वही साधु - अनगार है । भावार्थ विशुद्ध लेश्या - चित्त की परिणति वाला साधु - मर्यादा में स्थित ज्ञानी साधक मन, वचन एवं काया से आत्मभावों से पर अनात्मभावों की या विषयोपभोग द्वारा तथाकथित परोपकार क्रिया का त्याग करे । वास्तव में अनगार वही है जो स्त्री - स्पर्श परीषह या शीत, उष्ण, दंश, मशक, तृण आदि के समस्त स्पर्शो को समभाव से सहता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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