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सूत्रकृतांग सूत्र से उत्पन्न होने वाले ये कामभोग पाप को उत्पन्न करते हैं, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है।
व्याख्या
स्त्रीसंसर्ग-त्याग की प्रेरणा
__इस गाथा में शास्त्रकार ने स्त्री-संसर्ग और संवास से दूर रहने की प्रेरणा दी है। इसका कारण बताते हुए शास्त्रकार ने तीर्थंकरों, गणधरों आदि के कथन का हवाला देते हुए कह दिया कि ये पूर्वोक्त प्रकार के कामभोग अनेक प्रकार के पापों को उत्पन्न करते हैं। खासतौर से इस बात पर जोर दिया गया है कि पूर्वगाथाओं में जो कहा गया था कि स्त्री यह कहती है कि यदि केशवाली स्त्री के साथ तुम्हारा मन नहीं लगता है तो मैं केशों को उखाड़ डालं, आदि; वाहियात बातों के वाग्जाल में कल्याणकामी साधक न आए । सौ बातों की एक बात यह है कि वह अपने अमूल्य संयमी जीवन की रक्षा के लिए हर सम्भव तरीके से स्त्री-संसर्ग एवं स्त्रीसंवास से दूर रहे । यही इस गाथा का रहस्य है।
मूल पाठ एयं भयं ण सेयाय, इइ से अप्पगं निरु भित्ता। णो इत्थि णो पसुं भिक्खू, णो सयं पाणिणा णिलिज्जेज्जा ॥२०॥
संस्कृत छाया एतद् भयं न श्रेयसे, इति स आत्मानं निरुध्य । नो स्त्री नो पशु भिक्षुः नो स्वयं पाणिना निलीयेत ।।२०।।
अन्वयार्थ (एयं भयं न सेयाय) स्त्री-संसर्ग से जो खतरे पैदा होते हैं, वह कल्याण के लिए नहीं होते, (इइ से अप्पगं निरु भित्ता) इसलिये साधु अपने आपको स्त्री-संसर्ग से रोक कर (णो इत्थि णो पसु णो सयं पाणिणा भिक्खू णिलिज्जेज्जा) न तो स्त्री को, और न ही पशु को अपने हाथ से स्पर्श करे ।
भावार्थ स्त्री-संसर्ग से पूर्वोक्त अनेक भय पैदा होते हैं, इस कारण स्त्री-संसर्ग कल्याणकारी नहीं होते हैं । अतः साधु स्त्री एवं पशु का अपने हाथ से संस्पर्श न करे।
व्याख्या स्त्री-संसर्ग ही नहीं स्त्री-पशु संस्पर्श से भी दूर रहे
इस गाथा में स्त्री-संसर्ग से होने वाले खतरों और अकल्याण की ओर इंगित
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