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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
५६७ उपमा इसलिए दी जाती है कि उसे मलमूत्र फैकने के काम में भी लगाया जाता है। स्त्रीवशीभूत पुरुष कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के विवेक से शून्य तथा हित की प्राप्ति तथा अहित के त्याग से रहित होने के कारण पशुतुल्य होता है। जैसे पशु केवल आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृत्ति को ही जीवन का सर्वस्व मानते हैं, वैसे ही स्त्रीवशीभूत पुरुष भी रात-दिन भोगप्राप्ति, सुखसुविधाओं के अन्वेषण, कामभोग के लिए स्त्री की गुलामी, ऊँट की तरह रात-दिन तुच्छ सांसारिक कार्यों में जुटे रहने तथा उत्तम अनुष्ठानों से दूर रहने के कारण पशु-सा ही है। अथवा स्त्रीवशीभूत पुरुष दास, मृग, प्रेष्य (क्रीतदास) तथा पशु से भी गया बीता अवम एवं निकृष्ट होने के कारण कुछ भी नहीं है, नगण्य है। आशय यह है कि वह पुरुष इतना अधम है कि उसके समान कोई नीच है ही नहीं, जिससे उसकी उपमा दी जा सके । अथवा उभयभ्रष्ट होने के कारण वह पुरुष किसी भी कोटि में नहीं है, कुछ भी नहीं है। उत्तम निरवद्य अनुष्ठान से रहित होने के कारण वह प्रवजित नहीं है तथा ताम्बूल आदि का सेवन करने से तथा लोचमात्र करने से वह गृहस्थ भी नहीं है। अथवा इस लोक और परलोक का सम्पादन करने वाले पुरुषों में से वह किसी में भी नहीं है।
अब शास्त्रकार इस अध्ययन को परिसमाप्त करते हुए स्त्रीसंग करने के त्याग की प्रेरणा देते हैं---
मूल पाठ एवं खु तासु विन्नप्पं, संथवं संवासं च वज्जेज्जा। तज्जातिया इमे कामा, वज्जकरा य एवमक्खाए ॥१९॥
संस्कृत छाया एवं खलु तासु विज्ञप्त, संस्तवं संवासं च वर्जयेत् । तज्जातिका इमे कामा, अवद्यकरा एवमाख्याताः ॥१६॥
अन्वयार्थ (तासु) स्त्रियों के विषय में (एवं विज्ञप्पं) इस प्रकार की बातें बताई गई हैं (संथवं संवासं च वज्जेज्जा) इसलिए साधु स्त्रियों के साथ संसर्ग (परिचय) सहवास का त्याग करे। (तज्जातिया इमे कामा अवज्जकरा एवमक्खाए) स्त्री संसर्ग से उत्पन्न होने वाले ये कामभोग पाप को पैदा करते हैं, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है।
भावार्थ स्त्रीसंसर्ग के सम्बन्ध में जो पूर्वोक्त शिक्षाएँ दी गई हैं, उन्हें देखते हुए साधु स्त्री के साथ संसर्ग और संवास से बिलकुल दूर रहे। स्त्रीसंसर्ग
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