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________________ ५६६ सूत्रकृतांग सूत्र ( दासे मिइव पेसे वा पसुभूतेव से ण वा केई) वे पुरुष या तो दासों की तरह हैं, या मृग की तरह भोलेभाले नौकर हैं अथवा वे पशु के समान हैं अथवा वे कुछ भी नहीं हैं । भावार्थ स्त्री वशीभूत होकर बहुत से लोगों ने भूतकाल में भी स्त्रियों की आज्ञा का पालन किया है । जो पुरुष भोग के निमित्त सावद्य कार्यों में आसक्त हैं, वे या तो खरीदे हुए गुलामों की तरह हैं, या वे बेचारे (मृग ) नौकर के समान हैं, या फिर वे पशु के समान हैं, अथवा वे सबसे अधमतुच्छ - नगण्य हैं | व्याख्या स्त्रीदास अतीत में कैसे थे, क्या थे ? प्रश्न होता है कि शास्त्रकार ने पूर्वगाथाओं में स्त्रीवशीभूत पुरुष की वृत्तिप्रवृत्ति के जिस निकृष्ट चित्र का अंकन किया है, क्या वे भूतकाल में भी इसी प्रकार करते थे ? वे भूतकाल में भी आम जनता की नजरों में क्या और किसके तुल्य समझे जाते थे ? इसी का समाधान इस गाथा में शास्त्रकार ने प्रस्तुत किया है'एवं बहुह कयपुवं से ण वा केई ।' शास्त्रकार का आशय यह है कि जिस प्रकार का हमने स्त्रीवशीभूत पुरुष की वृत्ति प्रवृत्तियों का निरूपण किया है, उस प्रकार की वृत्ति प्रवृत्ति भूतकाल में भी उन लोगों में पायी जाती थी, जो लोग कामभोग के लिए साद्यकार्यों में रचेपचे रहते थे। ऐसे लोग जो कामभोगों की प्राप्ति के लिए इहलोक - परलोक के अनिष्टों एवं खतरों को नहीं सोचकर बेखटके हाथ धोकर सावध - अनुष्ठानों में जी-जान से जुटे रहते थे, उन्होंने भूतकाल में भी स्त्री के गुलाम बनकर पूर्वोक्त तुच्छ कार्य किये थे, वर्तमान में भी करते हैं और भविष्य में भी करेंगे । तथा यह बात भी पूर्ण रूप से सत्य है कि जो पुरुष मोहान्ध तथा स्त्रीवशीभूत हैं, चतुर स्त्रियाँ उनसे पूर्वोक्त तुच्छ कार्य निःशंक होकर कराती हैं । ऐसे स्त्री वशीभूत पुरुष अतीत में व वर्तमान में कैसे व किसके समान समझे जाते थे ? इसके लिए उन पुरुषों की तुलना पाँच प्रकार से की गयी है - (१) दास के समान, (२) मृग के समान, (३) प्रेष्य ( नौकर ) के समान, ( ४ ) पशु के समान तथा (५) सबसे अधम नगण्य | उन्हें दास के समान इसलिए कहा गया है कि स्त्रियाँ निःशंक होकर उन्हें दास ( गुलाम ) की तरह पूर्वगाथाओं में उक्त कर्मों में लगाती हैं। मृग की तरह इसलिए कहा गया है कि जैसे जाल में पड़ा हुआ मृग परवश होता है, इसी प्रकार स्त्री वशीभूत पुरुष इतना परवश हो जाता है कि वह अपनी इच्छा से भोजन आदि क्रियाएँ भी नहीं कर पाता । स्त्रीवशीभूत पुरुष को क्रीतदास या प्रेष्य - - नौकर की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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