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स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
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व्याख्या
स्त्री-दास कौन-सा तुच्छ कार्य नहीं करते? इस गाथा में स्त्री के वशवर्ती गुलाम पुरुष की वृत्ति-प्रवृत्ति की एक झांकी देकर शास्त्रकार इस प्रसंग का अगली गाथा में उपसंहार कर देते हैं-'राओ वि उठ्ठिया ... हवंति हंसा वा।'
आशय यह है कि स्त्रीवशंगत पुरुष स्त्री के समक्ष इतने दीन-हीन-कायर हो जाते हैं कि स्त्री के किसी भी वचन को सुनकर चूं भी नहीं कर सकते । रात को भी ज्यों ही बच्चा रोता है, वे स्त्री को न जगाकर स्वयं चुपचाप उठ जाते हैं, और धाय की तरह बच्चे को गोद से चिपटा लेते हैं । वे बालक को किस प्रकार के मधुरमधुर आलापों से खेलाते हैं ? इसे एक विचारक के शब्दों में देखिए ...
"सामिओसि णगरस्म य णक्क उरस्स य हत्थकप्पगिरिपट्टण सीहपुरस्स य उण्णयस्स निन्नस्स य कुच्छिपुरस्त य कण्णकुञ्ज आयामुह सोरियपुरस्स य।"
अर्थात् . हे पुत्र! तुम नगर का स्वामी हो । तुम नक्रपुर, हस्तिपत्तन, कल्पपत्तन, सिंहपुर, उन्नत-स्थान, निम्नस्थान, कुक्षिपुर, कान्यकुब्ज, पितामहमुख एवं शौरिपुर के स्वामी हो।
इस प्रकार स्त्रीवशीभूत पुरुष ऐसे-ऐसे कार्य करते हैं, जिनसे वे हँसी के पात्र बनते हैं । यद्यपि ऐसे नीच एवं निन्द्य करते हुए वे लज्जित होते हैं, फिर भी वे स्त्रीमोहवश लज्जा को ताक में रखकर उसके वचन के अनुसार तुच्छ से तुच्छ कर्म करते हैं। यही सूत्रकार कहते हैं - 'वत्थधोवा हवंति हंसा वा।' अर्थात् ऐसे पुरुष धोबी की तरह स्त्री के मैले-कुचैले कपड़े धोते हैं, यहाँ तक कि वे बच्चे के पोतड़े भी धोते हैं। वस्त्र धोना तो उपलक्षण है। पानी लाना, अनाज पीसना, रोटी बनाना आदि अन्य कार्य भी वे पुरुष करते हैं। कितनी दीन-हीन मनोवृत्ति हो जाती है, ऐसे पुरुष की ! इसे अगली गाथा में देखिए ----
मल पाठ एवं बहुहिं कयपुव्वं, भोगत्थाए जेऽभियावन्ना। दासे मिइव पेसे वा, पसुभूतेव से ण वा केई ।।१८॥
संस्कृत छाया एवं बहुभिः कृतपूर्व, भोगार्थाय येऽभ्यापन्नाः । दासमृगाविव प्रेष्य इव पशुभूत इव स न वा कश्चित् ॥१८॥
अन्वयार्थ । (एवं बहुहि कयपुवं) इस प्रकार पूर्वोक्त काल में बहुत-से लोगों ने किया है। (भोगत्थाए जेऽभियावन्ना) जो पुरुष भोगों के लिए सावद्यकर्म में आसक्त हैं,
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