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ददाति प्रार्थितः प्राणान् मातरं हन्ति तत्कृते किं न दद्यात्, न कि कुर्यात्, स्त्रीभिरभ्यथितो नरः ॥२॥ ददाति शौचपानीयं पादौ प्रक्षालयत्यपि
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सूत्रकृतांग सूत्र
॥३॥
श्लेष्माणमपि गृह्णीत, स्त्रीणां वशगतो नरः अर्थात् — वह समझता है कि मुझे जो रुचिकर लगता है, वही मेरी प्रिया करती है । वस्तुत: यही उस (स्त्री) का प्रिय करता है, इसे वह नहीं जानता । पुरुष स्त्री के द्वारा प्रार्थना करने पर अपने प्राण तक दे देता है । उसके लिए अपनी माता को भी मार डालता है । वस्तुतः स्त्री की प्रार्थना पर पुरुष उसे क्या नहीं दे देता, और क्या नहीं कर डालता ? स्त्री का गुलाम पुरुष शौचक्रिया के लिए उसे जल देता है, उसके पैर भी धोता है, उसका थूक भी अपनी हथेली पर ले लेता है ।
इस प्रकार स्त्रियाँ पुरुष को अपने पर गाढ़ अनुरक्त देखकर कभी पुत्र के निमित्त से, कभी अन्यान्य प्रयोजनों से एक नौकर समझकर जब-तब आदेश देती रहती हैं और स्त्रीमोही तथा पुत्रपोषक पुरुष महामोहकर्म के उदय से इहलोक और परलोक के नष्ट होने की परवाह न करके स्त्री का आज्ञाकारी बनकर सब आज्ञाओं का यथावत् पालन करता है । यों जिन्दगीभर ऊँट की तरह वह पुरुष गार्हस्थ्यभार ढोता रहता है ।
और भी वह क्या - क्या करता है ? इसे अगली गाथा में बताते हैं
मूल पाठ
ओ विउट्ठिया संता, दारगं च संठवंति धाई वा ।
सुहिरामणा वि ते संता वत्थधोवा हवंति हंसा वा ॥१७॥
संस्कृत छाया
रात्रावप्युत्थिताः सन्तः दारकं संस्थापयन्ति धात्रीव । सुमनसोऽपि ते सन्तः वस्त्रधावका भवन्ति हंसा वा ॥ १७ ॥
अन्वयार्थ
( राओ वि) रात में भी वे पुत्रपोषणशील स्त्रीमोही पुरुष ( उट्ठिया संता) उठकर (धाई वा दारगं च संठवंति ) धाय की तरह बालक को गोद से चिपकाये रहते हैं, (ते सुहिरामणा वि संता) वे पुरुष अत्यन्त लज्जाशील होते हुए भी ( हंसा वा वत्यधोवा हवंति ) धोबी की तरह स्त्री और बच्चे के वस्त्र तक धोते हैं ।
भावार्थ
स्त्री वशीभूत एवं पुत्र पोषक पुरुष रात में भी जागकर धाय की तरह बच्चे को गोद में चिपकाए रहते हैं । वे अत्यन्त लज्जाशील होते हुए भी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिए धोबी की तरह उसके और बच्चे के कपड़े भी धो डालते हैं ।
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