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________________ स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन-द्वितीय उद्देशक व्याख्या पुत्र उत्पन्न होने पर तो और अधिक गुलाम इस गाथा में पुत्रोत्पत्ति होने पर स्त्री-आसक्त पुरुष की अधमदशा का वर्णन किया है- 'जाए फले ..... भारवहा हवंति उट्टा वा' आशय यह है कि गृहस्थ जीवन में एक गृहस्थ दम्पती के लिए पुत्र का जन्म होना ही गार्हस्थ्यफल माना जाता है। नर-नारी के संसर्ग का फल कामसुखभोग करना है, और कामभोग-सेवन का प्रधान फल पुत्र-जन्म है। पुत्र गृहस्थ के लिए कितना प्यारा होता है, यह कवि के शब्दों में पढ़िए इदं तत्स्नेहसर्वस्वं सममाढ्यदरिद्रयोः । अचन्दनमनौशीरं हृदयस्यानुलेपनम् ॥१॥ यत्तच्छपनिकेत्युक्त बालेनाव्यक्तभाषिणा। हित्वा सांख्यं च योगं च तन्मे मनसि वर्तते ॥२।। ___ अर्थात्- धनवान और निर्धन दोनों के लिए पुत्रजन्म होना समान रूप से स्नेह का सर्वस्व है । यह चन्दन और खसखस के बिना ही हृदय को शीतलता पहुँचाने वाला लेप है। तुतलाते हुए नन्हे-मुन्ने ने शयनिका शब्द के बदले शपनिका शब्द कहा था, वह शब्द सांख्य और योग के अतिरिक्त मेरे हृदय में विद्यमान रहता है । लोक व्यवहार में पुत्रसुख को ही पहला सुख माना है, उसके बाद दूसरा सुख अपने शरीर का है। इसलिए पुरुषों के लिए पुत्र ही परम अभ्युदय का कारण इस मोहमय संसार में माना जाता है। इस दृष्टि से पुत्रजन्म होने के बाद पुरुषों को क्या-क्या कष्ट सहने पड़ते हैं ? इसे ही शास्त्रकार संक्षेप में बताते हैं-- 'गेण्हसु वा णं अथवा जहाहि' । सर्वप्रथम तो स्त्री ही झिड़कती हुई कहती है "प्रियतम ! तुम्हारे इस लाल को लो, सँभालो, मैं अन्यान्य गृहकार्यों में लगी हूँ। इसे लेने का मुझे अवकाश नहीं है। अगर तुम इसे नहीं सम्भालते हो तो मत सम्भालो। मैं इसको नहीं रखूगी। मेरी ओर भी तो देखो। मैंने तो इसे नौ महीने तक पेट में रखा है, मगर तुम थोड़ी सी देर भी इस बच्चे को रखने से घबराते हो। तुम बैठे-बैठे करते क्या हो ? इसे सम्भालो, मैं जाती हूँ।" स्त्रीवशीभूत पुरुष की दशा स्त्री के सामने नौकर से भी बदतर हो जाती है । नौकर तो अपने मालिक से डरकर उसकी आज्ञा का पालन करता है, लेकिन स्त्रीवशीभूत पुरुष स्त्री के प्रति मोह, पुत्र के प्रति ममत्व एवं आसक्ति के कारण उसकी हर आज्ञा को शिरोधार्य करता है, हृदय से उसका पालन करता है। स्त्रीवशीभूत पुरुष स्त्री की हर आज्ञा को अपने पर कृपा मानकर सहर्ष पालन करता है। कहा भी है यदेव रोचते मह्य, तदेव कुरुते प्रिया । इति वेत्ति न जानाति, तत्प्रियं यत्करोत्यसौ ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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