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सूत्रकृतांग सूत्र
मासैरष्टभिरह्ना च, पूर्वेण वयसाऽऽयुषा ।
तत्कर्तव्यं मनुष्येण, यस्यान्ते सुखमेधते ॥ अर्थात्-वर्षाकाल के अतिरिक्त शेष आठ महीनों में मनुष्य को ऐसा कार्य कर लेना चाहिए, जिससे वर्षाकाल के ४ महीनों में सुख प्राप्त हो, तथा दिन में वह कार्य कर लेना चाहिए, जिससे रात्रि में आनन्द प्राप्त हो एवं आयुष्य के पूर्वभाग में मनुष्य को ऐसे कार्य करने चाहिए, जिससे आयुष्य के अन्त में सुख मिले ।
कभी-कभी निर्लज्ज होकर स्त्री कामासक्त पुरुष को डाँटते हुए कहती हैबैठे-बैठे क्या कर रहे हो ? बाजार से जाकर नये सूत से बनी हुई एक मंचिया या खटिया ले आओ। मैं नंगे पैरों इधर-उधर नहीं घूम सकती, इसलिए मेरे लिए मूंज या काष्ठ की बनी हुई खड़ाऊँ भी लेते आना। और देख रहे हो न ! मैं आजकल गर्भवती हूँ, मुझे अनेक प्रकार दोहद उत्पन्न होते हैं। उनकी पूर्ति के लिए अमुकअमुक वस्तुएँ जरूर लानी हैं। इस प्रकार स्नेहपाश में बँधे हुए कामासक्त पुरुष पर स्त्रियाँ निर्लज्ज होकर दास की तरह आज्ञा चलाती हैं, नित नयी माँगें करती हैं। बेचारा पुरुष पशु की तरह सारे कार्यभार को रातदिन ढोता रहता है।
मल पाठ जाए फले समुप्पन्ने, गेण्हसु वा णं अहवा जहाहि । अह पुत्तपोसिणो एगे, भारवहा हवंति उट्टा वा ॥१६॥
संस्कृत छाया जाते फले समुत्पन्न, गृहाणैनमथवा जहाहि । अथ पुत्रपोषिण एके, भारवहा भवन्ति उष्ट्रा इव ।।१६।।
___ अन्वयार्थ (जाए फले समुप्पन्न) पुत्र उत्पन्न होना गार्हस्थ्य का फल है, उसके होने पर (गेण्हसु वा णं अहवा जहाहि) स्त्री रुष्ट होकर कहती है ---इस पुत्र को गोद में लो अथवा छोड़ दो । (अह एगे पुत्तपोसिणो उट्टा वा भारवहा हवंति) कोई पुरुष पुत्र के पालन-पोषण में इतने रक्त हो जाते हैं कि वे ऊँट की तरह जीवन-भर (गार्हस्थ्य) भार ढोते रहते हैं।
भावार्थ पुत्र का जन्म होना गृहस्थ जीवन का फल है। उस फल के उत्पन्न होने पर स्त्री झिड़कती हई पुरुष से कहती है--लो, अपने लाल को, या तो इसे रखो, गोद में लेकर खिलाओ अथवा इसे छोड़ दो, मैं नहीं जानती। इससे प्रेरित होकर सन्तान के पालन-पोषण में आसक्त कई पुरुष जिंदगीभर ऊँट की तरह गार्हस्थ्यभार ढोते रहते हैं।
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